बुधवार, 24 जून 2015

सुर-१७५ : "लघुकथा - साइलेंट किलर...!!!"

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मित्रों...,


जैसे ही 'पापा' घर आये नन्ही ‘पलक' दौड़कर आई और उनको अपनी बनाई पेंटिंग दिखाने लगी पर वे तो थके-मांदे होने के कारण उसे देखने के बजाय सोफे पर निढ़ाल हो पड़ गये ये आज ही नहीं हुआ रोज की ही बात हैं । पापा के पास कभी भी अपनी बिटिया के लिये कोई समय नहीं हमेशा व्यस्त कभी ऑफिस तो कभी लैपटॉप या कुछ नहीं तो दोस्तों से मोबाइल पर बात और उसे भी न जाने कैसी लगन कि माँ से ज्यादा उसे अपने पापा से ही दो लफ्ज़ सुनने की इच्छा हैं । जिसे न तो बच्चे पसंद न ही उनकी बालसुलभ हरकतें वो तो उसे हमेशा झिड़क देते और उसका मनोबल बढ़ाने की बजाय ओर गिरा देते जिसका परिणाम ये हुआ कि उसके अंदर की ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा तो उभर ही न सकी बल्कि जो योग्यता थी वो भी धीरे-धीरे मिट गया और उसकी असीम ऊर्जा जो उसे प्रेरित करती थी उसे ही मारने लगी पर, पापा को खबर ही नहीं हुई कब अनजाने में उनकी वजह से इक कली खिलते-खिलते रह गयी । जो लड़की उनकी आहट पर दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी अब गुमसुम रहने लगी पापा की चाहत की अपेक्षा से मिली उपेक्षा ने उसके वज़ूद को अंदर ही अंदर खोखला बना दिया उसकी तमाम इच्छायें मर चुकी थी और वो अब केवल एक काठ की गुड़िया मात्र रह गयी थी
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२४ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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