शुक्रवार, 5 जून 2015

सुर-१५६ : "विश्व पर्यावरण दिवस का संदेश... करें प्रकृति का सरंक्षण...!!!"

बख्शी
खुदा ने
सृष्टि को
हर एक नेमत
सबके लिये
पर,
मिटा रहा
स्वार्थी मानव
ईश्वरीय कुदरत
सिर्फ़ अपने ही लिये
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मित्रों...,

पशु-पक्षी... पर्वत-पहाड़... नदी-झरने... तालाब-बावड़ी... पेड़-पौधे... धरती-आकाश... हवा-पानी... सब ही प्रकृति की अनमोल सौगात हैं... जिसके पारस्परिक सहयोग से ही सृष्टि का संचालन होता हैं और संतुलन बना रहता हैं... लेकिन जिस तरह केवल एक पहिये से गाड़ी नहीं चल सकती ठीक उसी तरह प्राकृतिक तुला में यदि सभी अंग समान ढंग से रखे न गये हो तो पलड़े का एक ही तरफ झुकना लाज़िमी हैं और अब वही हो रहा हैं क्योंकि जैसे ही इंसान को धीरे-धीरे इस बहुमूल्य खज़ाने की कीमत और इसकी विविध उपयोगिता का इल्म हुआ तो उसने हर एक सजीव का हक मारते हुये एक शातिर बेटे की तरह पूरी जायदाद को खुद ही हड़पने के लिये हर संभव प्रयास शुरू कर दिये जिसके परिणामस्वरूप दूसरा पक्ष जो कि उसकी तरह बुद्धिमान और स्वार्थी नहीं था आसानी से उसके हाथों लुट गया पर, जैसे-जैसे प्राकृतिक आपदायें, ग्लोबल वार्मिंग, पल-पल बदलता मौसम उसकी जान लेने पर उतारू होने लगा तो देर से ही सही उसे समझ आने लगा कि कहीं न कहीं उससे गलती हो गयी जो उसने उसी डाल को काट दिया जिस पर वो बैठा था और अब पूरी तरह अपने ही बिछाये सुविधाओं के जाल में फंसकर उसे अहसास हुआ कि जिसे वो अपनी अक्ल की कारीगरी समझ रहा था दरअसल अब वही उसकी मूर्खता सिद्ध हुआ क्योंकि हर एक सुविधा की कीमत उसे अपने ही स्वास्थ्य को खोकर चुकानी पड़ रही हैं जिसे उसने अनजाने में ही अपने लालच के चक्कर में कृत्रिम बना दिया

जब तक वो कुदरत के निकट था तब तक सब कुछ बड़ा ही प्राकृतिक था हर एक शय उसे आगे बढ़कर अपने गले लगाती थी उस पर अपनी हर नेमत लुटाती थी जिसकी वजह से वो स्वस्थ निरोगी दीर्घायु होकर जीवन-यापन करता था लेकिन अब जितना वो उससे दूर हुआ उतना ही अपने आप से भी उसका संपर्क खत्म हो गया और नवीनतम तकनीक व अनगिनत यंत्रों के लगातार इस्तेमाल से वो खुद ही शने-शने मशीन में तब्दील होता जा रहा हैं उसके भीतर की कोमल मानवीय संवेदनायें खत्म होती जा रही हैं इसलिये उसे किसी के भी दुःख दर्द की न तो आवाज़ ही सुनाई देती हैं न ही कुछ दिखाई देता हैं सिवाय अपने मतलब के तभी तो उसे खबर नहीं कि जिस देश में प्रकृति ने अपार संपदा की बेशुमार छटा बिखेरी थी... रंग-बिरंगे नयनाभिराम नज़ारों की श्रृंखला खड़ी की थी... सुंदर-सुंदर पशु-पक्षियों की तादाद पैदा की थी उनमें से अधिकांश प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और शेष समाप्ति की कगार पर हैं

यदि वो अब भी संभल जाये और बचे हुये की ही हिफाज़त कर ले तो शायद, अपने आने वाली पीढ़ी के समक्ष उसे शर्मिंदा न होना पड़े क्योंकि हमने पूर्वजों से सुना हैं कि जितना शुद्ध उन्होंने घी खाया उतना हमें दूध भी नहीं मिला और जितना शुद्ध हमने दूध पिया उतना हमारे वंशजों को पानी नहीं मिला और जितना शुद्ध उन्होंने पानी पिया उतना शुद्ध आने वाली पीढ़ी को हवा भी नसीब नहीं होगी... वो जीवनदायिनी ‘हवा’ जिसके बिना किसी भी जीवित प्राणी का बच पाना संभव नहीं हैं... तो यही उद्देश्य हैं इस ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ का कि हम केवल एक दिन इसे मनाकर औपचारिकता का निर्वहन मात्र न करें बल्कि सभी को इसके प्रति जागरूक और सचेत करने के अलावा स्वयं भी इसके लिये सार्थक कर्म करें... पेड़-पौधे  लगाये... जानवरों को बचाने की मुहीम छेड़े... हवा-पानी को दूषित न करें... न ही कुदरत की हर एक सौगात का अकेले ही अकेले इस्तेमाल करें... इस तरह इस दिन का महत्व समझ इसे अर्थपूर्ण बनाये... आओ हर दिन पर्यावरण दिवस मनाये... :) :) :) !!!      
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०५ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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