सोमवार, 29 जून 2015

सुर-१८० : "बढ़ रहे जिस तरह खतरे के क्षेत्र... कहीं खुल न जाये महाकाल का तीसरा नेत्र... !!!"


सृष्टि
निर्माण
के समय ही
तय हो गया था
विनाश का काल भी
जो बांटा गया
चार अलग-अलग युगों में
कि एक के बाद एक
उनके आने और जाने से
जब एक चक्र पूरा हो जायेगा
तब ईश्वर की बनाई
मिटटी की ये विशाल दुनिया
उसके एक इशारे मात्र से
अतल पाताल में समा जायेगी
पर, इंसान हो गया अधीर
मिटा दी सारी अनमोल प्रकृति
अपने हाथों से ही बुला ली
काल से पहले अपनी अंतिम घड़ी ॥
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मित्रों...,

नास्त्रेदमसकी अजीबो-गरीब अनसुलझी भविष्यवाणी कभी कुछ हो जाने के बाद तो कभी घटना से पहले भी समझ ली जाती लेकिन उसके बाद भी होनी टल नहीं पाती इसी तरह जब से ये दुनिया बनी हैं इसके मिटने की भी घोषणा कर दी गयी कि एक दिन जल-प्रलयसे  विस्तृत आकाश से पाताल तक फैली हुई ये विशालतम सृष्टि मिट्टी के घरोंदे की तरह पल में चूर-चूर हो जायेगी जिसकी समय सीमा भी इस अनंत दुनिया की तरह ही अंतहीन हैं लेकिन हम सब ये देख रहे हैं कि जिस तरह से मानव ने सब कुछ जल्द पा लेने की लालसा में अपनी खुद की उमर घटा ली उसी तरह उसने क़ुदरत के उस बहुमूल्य खजाने को भी एक साथ पा लेने की कामना में न सिर्फ ख़ुद को बल्कि इस पूरी की पूरी दुनिया को भी संकट में डाल दिया हैं बिल्कुल उस लालची आदमी की तरह जिसने रोज सोने का एक अंडा देने वाली मुर्गी से एक ही दिन में एक साथ सारे के सारे अंडे पा लेने के अपने अंधे स्वार्थ के चलते उसे एक ही वार में हलाल कर दिया पर, हाथ में आये केवल आंसू और सबक कि यदि अधैर्य के साथ कोई भी कार्य किया जाये और वक्त से पहले ही सब कुछ हासिल कर लेने की  मतलबी सोच जेहन में हो तो इंसान अपने साथ-साथ दूसरों का भी नुकसान कर लेता हैं फिर भी लगता नहीं कि इतने लंबे वक़्त से बचपन से पढ़ी जा रही इस बाल-कहानी से हमने कोई भी सीख ली हैं क्योंकि यदि गौर से सोचे तो पायेंगे कि हम सब वास्तव में वही लालची इंसान हैं और आज तलक भी वही गलती दोहरा रहे हैं सब कुछ जल्द पाने की हमारी इस अतृप्त चाहत ने हमें कहीं का न छोड़ा मगर, हम अब भी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने में लगे हैं घोर आश्चर्य की बात तो ये हैं कि सब कुछ देखने समझने के बाद भी बाज नहीं आ रहे हद दर्जे की स्वार्थान्धता के भोग-विलासी युग में हम सब केवल अपने-अपने लिये ही जी रहे हैं ।  

पाषाण युगसे तकनीक युगतक का अध्ययन करने से हमें केवल ये ही नहीं पता चलता कि हमने बहुत तरक्की कर ली हैं जिससे हम बहुत आगे बढ़ गये हैं और हमने बहुत सारी खोजें भी कर ली हैं जिसकी वजह से हमारा रहन-सहन, पहनावा, खान-पान, आहार-विहार सब कुछ और भी अधिक सुविधाजनक ही नहीं बल्कि आधुनिक भी हो गया हैं लेकिन इसके साथ ही जिस बात को हम नज़रअंदाज़ कर देते वो ये हैं कि इन सबको पाने के बाद हमने कुछ खोया भी तो हैं कुछ ऐसा जिसने हमारी प्राकृतिक जीवन शैली को न सिर्फ़ कृत्रिम बल्कि मशीनी भी बना दिया हैं और अब बेहद जरूरी हैं कि इससे पहले कि हम एकदम रोबोटही बन जाये गनीमत हैं कि उससे पहले ही संभल जाये जो अभी तो नामुमकिन नहीं लेकिन कयामत की दहलीज पर पहुंचकर जरुर असंभव हो जायेगा और वो दिन अब दूर भी नज़र नहीं आता क्योंकि उसका एक अंश बोले तो ट्रेलरहम सब प्राकृतिक आपदाओं के रूप में आये दिन देखते ही रहते हैं लेकिन इतने ढीठ हो गये कि यदि हम पर आंच नहीं आ रही या हमें नुकसान नहीं पहुंच रहा तो थोड़ी-सी सहानुभूति जताकर सोचते कि हमने अपना फर्ज़ अदा कर दिया और वापस मस्ती की अपनी उस बेफ़िक्र वाली कुयें समान छोटी-सी दुनिया में मुंह घुसाकर गुम हो जाते और कबूतर समान आँख बंद कर समझते कि अभी तो हम सुरक्षित हैं पर, आखिर कब तक क्योंकि भले ही धरती का वो हिस्सा जहाँ हम रहते हैं अब तक महफूज़ हैं और उस जगह पर कोई भी विपदा नहीं आई तो इसका मतलब ये कतई नहीं कि कभी ऐसा होगा भी नहीं पर, जैसी कि इंसानी फ़ितरत होती उसे अपने सिवा कोई और नज़र नहीं आता और अब तो धीरे-धीरे उसकी समाजिकता का दायरा दुनिया, देश, समाज, घर-परिवार से घटते-घटते सिमटकर उसकी हथेलियों में फंसे उस तंत्र के छोटे-से स्क्रीन में आकर उसकी उंगुलियों के इशारे पर चलने लगा तो फिर उसकी सोच में संवेदनशीलता आये कहाँ से भला वो भी तो अब तरंगों से ही संचालित जो होने लगी हैं ।          

फिर से एक बार केदारनाथकी धरा पर मंदाकिनीकी सहनशीलता खतरे के निशान के परे हो गयी हैं जो अभी भले ही हमें दूसरी चेतवानी लग रही हो लेकिन हैं खतरनाक और तीसरी दफा शायद, सृष्टि संहारक ‘महाकाल’ का तीसरा नेत्र ही खुल जाये और वो पल हम सबके लिये अंतिम घड़ी बनकर ही आये उससे पहले अच्छा हो हम जागरूक बन जाये... ऐसा न हो कि फिर देर हो जाये और हम पछताये.... तो आओ अपनी धरती को डूबने से बचाये... :) :) :) !!!    
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२९ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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