मंगलवार, 2 जून 2015

सुर-१५३ : "कबीर की वाणी... आज भी सबको राह दिखाती...!!!"

वाणी
‘कबीर’ की
आज तलक
दिखलाती पथ
बताती हम सबको
जीवन के रहस्यमय सूत्र
जो पाये थे उन्होंने
बुनते-बुनते सूत
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मित्रों...,

भक्तिकालीन इतिहासकार एक जुलाहे को जो कि आज से लगभग पांच सौ साल पहले इस पावन धरती पर महादेव की नगरी ‘वाराणसी’ के ‘लहरतारा’ गाँव में पुण्यदायिनी गंगा के किनारे पैदा हुआ था जबकि इस देश में अनगिनत कुरीतियाँ और अंधविश्वास फैले हुये थे को आध्यात्मिक क्रांति का पुरोधा मानते हैं जिन्होंने अपने आस-पास के माहौल की हर एक गतिविधि को अपनी पैनी नजरों से न सिर्फ़ देखा और परखा बल्कि उसे उतनी ही सरलता से लयबद्ध भी कर दिया जिसे दोहराकर लोगों ने उसे सारे जगत में प्रचारित कर दिया उनके मुख से निकले अमृत बोलों में छिपे हुये ज्ञान-विज्ञान के अलावा जीवन में आने वाले हर एक मुकाम, हर मुश्किल घड़ी, हर अहसास को इस तरह से पिरोया गया हैं कि वो हमें कठिन से कठिन विषय और जीवन की गुत्थियों को इस तरह आसानी से खोलकर समझा देते कि बड़े से बड़ा संत-महात्मा और ज्ञानी भी उसे इस तरह से व्यक्त नहीं कर सकता तभी तो हम आज तलक उन्हें पढ़ते-गुनते हैं और हर  एक नवीन अर्थ निकालते हैं । उन्होंने अपनी ओजपूर्ण वाणी से इस तरह समाज में फैली हर गलत रवायत के खिलाफ़ फटकार लगाई कि समाज के तथाकथित ठेकेदार उनके विरुद्ध खड़े हो गये उनकी खिलाफ़त करने लगे क्योंकि इसने बरसों पुरानी मान्यताओं की आधारशिला को हिला दिया था जिसके दम पर ये लोग जन साधारण को ठगते और कभी जात-पात तो, कभी धर्म-अधर्म के नाम पर उनसे फायदा उठाते थे जिसे देखकर उनका कोमल हृदय द्रवित हो जाता और वही अनुभव किसी ‘साखी’ या ‘दोहे’ या ‘काव्य’ के रूप में फूट पड़ता जिसे सुनकर हर सच्चा इंसान उनका भक्त बन जाता उन्हें अपना गुरु मान उनसे शिक्षा ग्रहण करना चाहता और इस तरह वो अनपढ़ निम्न जात का सूत बुनने वाला बड़े-बड़े ज्ञानियों का भी परम गुरु बन जाता क्योंकि ‘भक्तिकाल’ के  जिस ‘स्वर्ण युग’ की बात की जाती हैं उसका कारण यही हैं कि उस दौर में ऐसे ‘अनमोल रतन’ हुये जिन्होंने मनसा वाचा कर्मणा सतत कर्म करते हुये अपनी जन्मभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया और जन-जन को अपने सादा जीवन, उच्च विचार से जीने के अद्भुत संदेश दिये जो आज भी हमारे मार्गदर्शक और प्रेरक बन कठिन वक़्त या संकट में हमें उबार लेते हैं ।

‘कबीरदासजी’ तो वैसे तो ‘निर्गुण धारा’ के उपासक थे पर, उन्होंने कभी भी ईश्वरीय शक्ति को नकारा नहीं केवल उनके माध्यम से संसार में जो भी मिथ्या धारणायें थी उन पर जमकर प्रहार किया तभी तो लोग भी उन्हें किसी जात से बांधकर नहीं देख पाते थे क्योंकि हिंदू को वो अपने समान तो मुसलमान की अपने जैसे लगते थे और वास्तव में देखा जाये तो ‘इंसान’ वही हैं जिसकी कोई जाति नहीं तभी तो कहते हैं ‘जात न पूछो साधू की पूछ लीजियो ज्ञान’ वाकई जो भी केवल ‘मानवीयता’ को ही अपना धर्म-कर्म मानते हैं वो कभी भी इस तरह की छोटी-छोटी बातों में नहीं उलझते उनकी नजरों में अदृश्य जगत पालक ही सर्वोच्च शक्तिमान होता जो उपर बैठकर दुनिया का संचालन करता और ये नीचे बैठकर उसके उस अद्भुत आध्यात्मिक संदेश को जनमानस में स्थापित करने का प्रयास करते जबकि तथाकथित ठेकेदार जो कि इनके माध्यम से अपना कारोबार करते वो सदैव उनका विरोध करते पर, वे भी अपने आत्मबल से सभी कठिनाइयों का सामना करते हैं तभी तो ‘कबीर’ भी किसी हालात या प्रथा या बंदे से घबराये नहीं बल्कि सबका मुकाबला अपनी कोमल वाणी से किया चाहे फिर वो पाखंड, कुरीतियाँ, धर्मान्धता, छुआछूत, जाति-पाति, अंधविश्वास, उंच-नीच हो या धन, लोभ, बैर, क्रोध, मोह, माया, जर,जमीन हो सबको शब्दों में लपेटकर एक ऐसा संदेशात्मक लिबास तैयार किया कि उसने जीवन की सभी अच्छाइयों-बुराइयों को सरलता से उज़ागर कर दिया । वे एक मानवता प्रेमी कवि थे जो हर भेदभाव से परे हटकर केवल इंसानियत को दुनिया का एकमात्र धर्म मानते थे और भक्तिकाल के सूफी संतों की श्रेणी में उनको प्रथम पंक्ति में रखा जा सकता हैं जिनके पद्यों की व्याख्या करना आज भी सबके लिये मुमकिन नहीं क्योंकि इन्हें महज पढ़ने नहीं आत्मसात करने की आवश्यकता हैं... उनके उपदेशों से हर भटके मन को शांति को मिल सकती हैं... जीवन के अंधकार में ज्ञान ज्योत मिल सकती हैं जिससे उसकी हर समस्या का समाधान हो सकता हैं तो आज उनकी जयंती पर उन्हें शत-शत नमन... :) :) :) !!!
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०२ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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