सोमवार, 22 जून 2015

सुर-१७३ : "जीने ले लिये... एक झरोखा... जरूरी हैं...!!!"

इक
‘दरीचा’
दिल के अंदर
भी तो होता हैं
ये और बात हैं कि
उसके परे नजरें नहीं
धडकनें हौले-हौले
ढूंढती हैं कोई चेहरा
जिसके दर से आती
किसी की सदा
किसी प्रिय की याद
हवा के झोंकों की तरह
जो बनती जीने की वजह
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मित्रों...,

शायद ही कोई ऐसा आशियाना या किसी का घर हो जिसकी चारदीवारी में कोई खिड़की या झरोखा न हो क्योंकि ये महज़ किसी मकान की खुबसूरती बढ़ाने के लिये नहीं और न ही उससे पट खोलकर बाहर झाँकने के लिये होती हैं बल्कि इसका एकमात्र उद्देश्य इसके रास्ते आने वाले जीवनदायिनी झोंके की दरकार होती हैं जिसके बिना अक्सर इंसान का दम घुटने लगता हैं ये और बात हैं कि इसके अतिरिक्त भी इसके अनेक फायदे और उपयोग हैं पर, कोई भी वजह जीवन से बड़ी तो नहीं हो सकती न तो प्रथम स्थान पर तो ताज़ा-ताज़ा ‘हवा’ को ही रखा जायेगा जो खिड़की के पट या दरवाजे से कभी तो एकदम धीमे-धीमे... तो कभी जबरन उसे धकेलकर भी भीतर आ जाती या कभी उसकी मर्जीं न होती तो नहीं भी आती याने की उसका आगमन हमेशा उसके मिज़ाज़ पर निर्भर करता पर, ये तय हैं कि उसके बिना हमारा गुज़ारा नामुमकिन होता क्योंकि साँसे सिर्फ़ ‘श्वसन तंत्र’ से नहीं चलती बल्कि इसके लिये अनमोल ‘ऑक्सीजन’ जरूरी होती जो सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ुदरत की इस बेमोल शय से ही हासिल होती और इसके लिये ज्यादा जतन करने की भी जरूरत नहीं ये तो अखिल ब्रम्हांड में सदा बहती रहती पर, हमारे स्वार्थ से ये बेशकीमती चीज़ और जीवन का पर्याय भी न सिर्फ़ प्रदूषित बल्कि असामान्य भी होती जा रही क्योंकि अब तो लोग इसे खोलते ही नहीं बल्कि यदि घर में ‘ए.सी.’ लगवा ले तो कृत्रिम वातावरण में मजे से बोझिल साँसे लेते पर, ये भूल जाते कि जो सुकून खुले माहौल में ताज़गी भरी शुद्ध हवा में हैं वो इस दमघोटूं माहौल में नहीं और जो आनंद खिड़की के पट खोलकर बाहर के नजारे देखने या तांका-झांकी करने या अपने पड़ोसी या सहेलियों से बतियाने में हैं वो कंप्यूटर की ‘विंडो’ में किसी की तस्वीर की देखने या किसी से ‘चैट’ करने में हर्गिज़ भी नहीं हैं

एक वक्त था जब इन खिड़कियों से ही... न सिर्फ़ साँसे चलती थी बल्कि जिंदगी भी आगे बढ़ती थी और अनगिनत अफ़साने भी तो जनम लेते थे... आलिशान महलों में रहने वाली महारानी या राजकुमारियां तो बड़े खुबसूरत रोशनदान बनवाती थी जिसमें लगे झीने-झीने पर्दे के पार बैठकर वो बाहर के बेहतरीन दृश्यों को देखती और कभी किसी रोज किसी सपनों के राजकुमार या आते-जाते किसी सपनों के सौदागर पर नज़र पड़ जाती और फिर किसी करिंदे को भेजकर उसे भीतर तलब किया जाता जिसके बाद ऐतिहासिक कहानी की किताब में इक  नया पन्ना जुड़ जाता... जो इतिहास बनकर अपना फसाना बयाँ करता यकीन न हो तो पढ़ ले वो किताब जिसमें बंद हैं ऐसे ही न जाने कितने राज़... सिर्फ़ राजमहलों ही नहीं साधारण घरों में तो ये ‘खिड़की’ एक अहम भूमिका अदा करती थी जिससे अक्सर लोग सामान के लेन-देन के साथ-साथ अपना कीमती <3 भी अदल-बदल लेते थे जिसके कारण अक्सर घर के मुखिया लोग गुस्से में आकर इसे बंद करवा दिया करते थे तो प्रेमीजन इसे खोलने के मौके तलाश करते थे और इस लुका-छिपी में ही खुशियाँ तलाशते थे क्योंकि उस समय उसे व्यस्त रखने वाले या उसका मनोरंजन करने के इतने साधन जो न थे लेकिन सिर्फ़ यही एक वजह नहीं थी बल्कि वे इसकी अहमियत समझते थे तभी तो अपने आस-पास के लोगों से भी जुड़े रहते थे जिससे सारे मोहल्ले के लोगों में आपस में दोस्ताना संबंध बने रहते थे पर, अब तो अगल को बगल की खबर नहीं क्योंकि अब वाकई ये एक ‘शो-पीस’ बनकर रह गयी हैं बच्चे भी न तो इन पर चढ़ते न ही इनसे देखते न ही इसके पीछे किसी की बेचैन आँखें ही दिखाई देती बल्कि मोटे-मोटे झालरदार पर्दों से इन्हें ऐसा ढांक दिया जाता कि ये घर का एक सजावटी कोना बनकर रह गयी हैं और सब लोग इसकी बजाय उस मुये कंप्यूटर की ‘विंडों’ से चिपके नजर आते और वहां भी इसे इसी तरह उपयोग करते लेकिन ध्यान रहें कितनी भी देर बैठे रहे उसके सामने पर, कोई भी ताज़ा-तरीन सेहतमंद वायु का झोंका नहीं आने वाला पर, हाँ उसके भीतर चलने वाले पंखे से गरम नुकसानदायक हवा की लहर जरुर आती जो आपकी सेहत और देह के लिये हानिकारक हो सकती हैं

तो... आज न सही कल से ही एक बार जरुर इसके दरवाजों को खोलकर देखिये... ताज़गी को महसूस करिये... बाहर झांकिये तो पता चलेगा क्या आपने खो दिया... शायद, वो मिल जाये... फिर से जीने का असली मज़ा आये... बचपन भी फिर से मुस्कुराये... ये और बात हैं कि हर उमर में इससे नज़र आने वाले नज़ारों के प्रति हमारा नज़रिया बदल जाता हैं... पर, इससे अंदर आने वाले उन झोंकों को कोई फरक नहीं पड़ता वो तो बस, जीने का कोई सामां थमाकर... आपकी आयु में इज़ाफा कर चले जाते हैं... :) :) :) !!!                  
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२२ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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