मंगलवार, 9 जून 2015

सुर-१६० : "अहसासों की तितली... यहाँ-वहाँ उड़ चली...!!!"

‘मन’
महसूसता
छोटी-छोटी बात
उनसे जुड़े जज्बात
जिनमें छिपे होते अहसास
जो दिखते तो नहीं
पर, तन-मन को
ख़ुद से सराबोर कर देते
अपने होने की छाप छोड़ देते
होकर फना अंतर में
सूक्ष्म रूह से ही लिपटे रहते
और मरकर भी फिर जनम लेते
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मित्रों...,

बगिया में उड़ती रंग-बिरंगी तितलीयों को देखकर ‘नव्या’ को अचानक ये ख्याल आया कि जितनी नरम-नाज़ुक और खुबसूरत फूलों की पंखुरियों-सी मुलायम ये प्यारी-प्यारी तितलियाँ हैं उतने ही कोमल शीशे जैसे नाज़ुक होते हैं देह के सबसे संवदेनशील हिस्से ‘दिल’ में रहने वाले अदृश्य अहसास जो गाहे-बगाहे अपने होने का अहसास दिलाते रहते हैं मन बगिया में तितलियों की तरह उड़ते फिरते और पता ही नहीं चलता कब वो आँखों के रास्ते से बाहर निकल आते और इस भरी दुनिया में पंख लगाकर गुम हो जाते अक्सर हम उनका आना-जाना देख ही नहीं पाते लेकिन अपनी तड़फ से ये जरुर जान लेते कि जिस तकलीफ़ से हम गुज़र रहे हैं उसकी वज़ह कोई न कोई अहसासी तितली हैं जो हमें अपने इंद्रधनुषी रंगों से भरमाती रहती और हम भी उसके उस मायावी रूप से चकाचौंध होकर उसे देखते ही रह जाते

कभी उस पकड़ने की कोशिश करते लेकिन उसकी चंचलता के आगे हार जाते क्योंकि वो हमारे नियंत्रण में कहाँ होती उसे तो बस, हमको अपने इर्द-गिर्द नचाना आता और हमें भी तो उसे पकड़ने का नाटक करने और उसके साथ आँख-मिचौली खेलना बड़ा भाता... जानते कि गर, दबोच लिया उसे तो वो मर जायेंगे और साथ अपने हमारे भीतर भी किसी जज्बे को खत्म कर जायेंगे... इसलिये हम भी आँख मूंदकर अपने अंदर उसकी हलचल को महसूस करते और सोचते कि आखें ही न खोले बस, उन्हें भीतर ही कैद कर रख ले पर, फिर ये भी सोचते कि कैद में तो वो घुटन से मर सकते तो घबराकर पलकें खोलते और जैसे वो इंतजार में बैठे रहते तुरंत उड़ जाते... और उनको पकड़ने की मिथ्या कोशिशों में हम भी उसके पीछे हो लेते... बड़ा अनोखा-सा ये खेल चलता रहता अहसासों और हमारे बीच जो सिर्फ़ जीवन के साथ ही नहीं बल्कि उसके बाद भी चलता ही रहता क्योंकि हमारे अहसास की वो तितली किसी और की बगिया में जो पहुँच जाती... अहसासों का यही आदान-प्रदान तो जीने का सबब बनता... :) :) :) !!!      
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०९ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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1 टिप्पणी:

Hayat Singh ने कहा…

कोमल एहसासों से सजी एक कोमल अभिव्यक्ति....