शनिवार, 15 अगस्त 2015

सुर-२२७ : "आया आज़ादी का त्यौहार... झूमो नाचो मिलकर य़ार...!!!"

आधी काली रात में
डूबाकर सूरज उस
दंभी फिरंगी सरकार का
जिसे था ये नाज़ कि
उनके ज़ालिम शासन का
सूर्य कभी अस्त नहीं होता
चीर के सीना अँधेरा का
निकला सूरज आज़ादी का
ऐसा कि फिर न डूबा कभी
और आज के दिन
सब करते यही दुआ कि
चमकता रहे ये गगन पर
यूँ ही सदा-सदा के लिये
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मित्रों...,

एक बहुत पुराना वृक्ष था उसकी उम्र लगभग तीन-चार हजार साल से अधिक हो चुकी थी पर, उस पर अब भी सोने के फल लगते थे जिसके कारण या तो हर कोई उस पर कब्जा करना चाहता था उसे पा लेना या फिर मिटा देना चाहता था पर उसकी जड़ें थी बड़ी मजबूत क्योकि करोड़ों लोगों ने पानी की बजाय अपने रक्त से उसे सींचा था तभी तो लूट पीटकर असंख्य चोटें खाकर भी वो अपनी ही जगह पर जमा था उसी के फल खाकर जिन्दा रहने वाले उसे खत्म कर देना चाहते पर वो अपनी विरासत को समेटे अपना अस्तित्व कायम रखता था तब उसकी जिजीविषा और अनवरत चोट खाकर भी खड़े रहने की अद्भुत कुशलता देखकर दुश्मनों ने उसे लूटकर उसके ही माली के हाथों उसकी जिम्मेदारी सौंपकर उसे नोंच खंसोटकर छोड़ दिया था ।

अब तो वो अपनी ही धरती पर अपनों के बीच पनप रहा था अतः उसे खूब फलना फूलना और हरा भरा होना चाहिए था पर अफ़सोस ऐसा न हुआ परायों ने तो जो सुलूक किया उसने बिना उफ़ उसे बर्दाश्त किया आखिर उनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती थी लेकिन अपने भी सौतेलों सा व्यवहार करें तो फिर देह या दिल नहीं आत्मा कचोटती हैं उस पर भी जब कोई देखने वाला या समझने वाला ही न हो तो पेड़ भी सूखने लगता लेकिन ये ‘भीष्म पितामह’ की तरह इच्छामृत्यु का वरदान पाये कोई अभिशापित दरख्त था तभी तो मोहवश अपने आपको कायम रखता कि जब उसके बच्चों का अस्तित्व भी उसी से जुड़ा हैं गर, वो न हो तो वे सब भी खत्म हो जाये तो न चाहते हुए भी जीना पड़ता हैं तो यही उस ‘कल्पवृक्ष’ की भी मजबूरी थी उसे पता हैं जिस दिन वो गिरा सबका नामों निशाँ समाप्त हो जायेगा जो भी उससे ऑक्सीजन प्राप्त कर रहे हैं ।

वो भी ‘भीष्म’ की तरह सब कुछ चुपचाप देखते रहने को अभिशप्त था यहाँ तक भी ठीक था कि अपनों का तो साथ था अपनी धरती का तो सुख था लेकिन धीरे-धीरे उसके फल से पोषित होने वाले अब ऐशों आराम और मस्ती में डूबकर उस पर नये-नये प्रयोग करने लगे किसी ने उस पर लीची तो किसी ने आम और किसी ने इमली या अखरोट / बादाम / पिस्ता / खजूर / तरबूज / अमरुद गोया कि जहाँ से जो मिला उसकी टहनियों पर लगाना शुरू कर दिया जिससे उसकी अपनी वास्तविक पहचान खोने लगी सारे वैज्ञानिक चिकित्सक अनुसंधानकर्ता परेशां हो गये कि इसे क्या नाम दे समझ ही नहीं आता कि ये वास्तव में किसका पेड़ हैं आदमी को तो अपने मन का फल मिल रहा उसे क्या मतलब कि इस अतिरिक्त उत्पादन हेतु पेड़ को कितनी तकलीफ उठानी पड़ रही उसे तो इच्छित वस्तु मिल रही फिर भले ही उस पेड़ का स्वरूप थोडा बिगड़ भी रहा हैं तो उसका क्या जाता जाता हैं वो तो मस्त हैं ।

अब भले ही इस सदियों पुराने पेड़ को उसके असली स्वरूप में पहचान पाना मुश्किल हो लेकिन जब तक वो अपनों के हत्थे नहीं चढ़ा था तो वो लोग उसे 'भारत' पुकारते थे पर अब सबकी भेसभुषा, चाल चलन, पहनना ओढना ,खाना पीना , बोलचाल इतना परिवर्तित हो गया कि ‘भारत’... में ‘भारत’ की जगह किसी और देश के होने का गुमान होता हैं ।

अब भी न चेते तो एक दिन वो किसी दूसरे जगत की प्रतिकृति नजर आयेगा इसलिये आज के दिन यही गुज़ारिश हैं कि ‘भारत’ को ‘भारत’ ही रहने दो कोई नाम दो उसकी अपनी पहचान, संस्कृति, सभ्यता और गहरी जड़ें हैं उन्हें सूखने से पहले ही उस पर लदा जबरदस्ती का बोझ हटा दे तो वो फिर पुराने रूप में लौट आयेगा वरना ऐसे तो उसका नाम, पहचान उसका अस्तित्व संकट में आ जायेगा फिर कोई ‘कोलम्बस’ भी आकर चकरा जायेगा ये ‘अमरीका’ हैं या ‘भारत’ अतः हम सिर्फ विकास में औरों की नकल करें उनके जैसा बनने में नहीं... इसी विनती के साथ सभी को स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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१५ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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