मंगलवार, 11 अगस्त 2015

सुर-२२२ : "आया दूजा सावन सोमवार... भक्त करते पूजा अपार...!!!"


शिव ही देवता
शिव ही शक्ति
शिव ही रचे संसार
शिव ही करे पालन
शिव ही करते संहार
शिव की महिमा अपरंपार
-------------------------------●●●

___//\\___ 

मित्रों...,

‘शंकर’ का अर्थ ही हैं ‘कल्याण करना’ अतः भगवान शिवशंकर का कार्य केवल जगत का कल्याण करना हैं सभी साधकों की मान्यता हैं कि सच्चिदानंदमूर्ति कल्याणस्वरूप परमाराध्य भगवान् शंकर सर्वोपरि देव हैं तथा संपूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं उन्होंने ही इस जीव-जगत का निर्माण किया हैं और जीव-जगत के मूल कर्ता शिव ही हैं तथा वे ही तो जगत में होने वाले सभी कार्यों के कारण भी हैं इसलिये ये सारा जगत अपनी भक्ति के पुष्पों से उनको पूजता हैं और अपनी श्रद्धा का नेवैद्य उनको अर्पित कर अश्रु जल से चरण पखारता हैं जिससे कि आशुतोष प्रसन्न होकर अपनी दिव्यशक्ति से उसको नवाजते हैं जिससे कि उसके दुर्गुणों का नाश होकर उसके मन में विद्या का प्रकाश जगमगाता हैं उपासना के दृष्टिकोण से भगवान शिव को तमोगुण के देवता बताने का आशय यह हैं कि वे इतने दयालु और औघड़दानी हैं कि जिन दोष एवं अपवित्रता से सामान्यतः घृणा की जाती हैं या उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता हैं वे तो उन सबकी तरफ ध्यान ही नहीं देते बस, भक्त की थोड़ी सी सेवा-आराधना से ही उस पर आशीषों की झड़ी लगा देते हैं और बड़े से बड़ा वरदान भी सहजता से दे देते हैं तभी तो असुर लोग भी आसानी से उनको प्रसन्न कर अपना मनचाहा वर प्राप्त कर लेते थे ऐसे में अगर भक्त पूरे मन से तन्मयता के साथ उनको बेलपत्र ही चढ़ा दे या उनका नाम जप कर ले तो वे उसे उसकी इच्छित वस्तु प्रदान कर देते हैं इसलिये सावन के महीने में तो हर दिन सभी लोग उनकी भक्ति में लीन रहते हैं और सावन का सोमवार तो विशेष रूप से उल्लेखनीय होता हैं जब सारे भक्त उनके दर्शन की अभिलाषा से शिवालयों में जाते हैं उनको जल-पत्र चढ़ा आरती उतारते हैं

‘शिव’ और ‘शक्ति’ ये परम शिव अर्थात परम तत्व के दो रूप हैं जहाँ ‘शिव’ अचल, अदृश्य, अव्यक्त आत्मा हैं वही शक्ति चल, दृश्य एवं व्यक्त सत्ता हैं अतः शक्ति के चरणों में आत्मसमर्पण करना ही शिव के साक्षात्कार का साधन माना गया हैं जो कि किसी व्यक्ति के स्वयं के देहाभिमान, अहंकार से उपर उठ जाने पर ही संभव होता हैं क्योंकि शिव-शक्ति कहने को भले ही एक हैं लेकिन वे दोनों एक दुसरे से उसी प्रकार भिन्न हैं जिस तरह कि सूर्य से उसका प्रकाश या अग्नि से उसका ताप मतलब कि कहने को तो साथ-साथ हैं जिसके कारण उनको पृथक करना असंभव होता लेकिन उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी हैं जो केवल सूक्ष्म दृष्टि या फिर भगवत कृपा से ही समझ में आता हैं तभी तो शिव की आराधना शक्ति की आराधना हैं तो शक्ति की उपासना शिव की उपासना हैं अतः कह सकते हैं कि शिव से भिन्न शक्ति नहीं और शक्ति से भिन्न शिव नहीं क्योंकि ‘शिव’ में ‘इ’कार ही ‘शक्ति’ हैं जिसके निकल जाने पर ‘शिव’ भी ‘शव’ बन जाता हैं । शिव-शक्ति के इस साकार रूप को ‘अर्द्धनारीश्वर’ की संज्ञा दी गयी हैं जहाँ पर ‘शिव’ और ‘शक्ति’ दोनों एकाकार होकर अपने-अपने स्वरुप को इस तरह समाहित कर लेते हैं कि समान रूप से उनका अर्धांश मिलकर एक पूर्ण मूर्ति को आकार देता हैं भले ही ये देखने में किसी को बड़ा अस्वाभाविक लगता हो लेकिन इस स्वरूप के अंदर मानव जाति का महान दर्शन छिपा हुआ हैं जो ये बताता हैं कि स्त्री-पुरुष के साम्य भाव में ही सृष्टि का संतुलन संभव हैं और ये सच्ची समता केवल पूर्ण संयोग से ही उत्पन्न होती हैं जहाँ दोनों के बीच के सारे विरोध समाप्त हो जाते हैं और वे बिना किसी विवाद के बराबर के संयोग से पूर्णता को प्राप्त होते हैं क्योंकि उस मिलन में न तो कोई स्त्री होती हैं और न ही कोई पुरुष केवल एक अद्वितीय वस्तु ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ही शेष रह जाता हैं और उसी आनंद मूर्ति का नाम ‘अर्धनारीश्वर शिव’ हैं... आज सावन के दुसरे सोमवार को शिव-पार्वती के उसी रूप को प्रणाम... :) :) :) !!!             
______________________________________________________
१० अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: