गुरुवार, 13 अगस्त 2015

सुर-२२५ : "महारानी अहिल्या बाई होल्कर... बनी महिला सशक्तिकरण की पैरोकार...!!!"

इंदौर की रानी अहिल्या बाई
आज फिर उनकी याद चली आई 
नन्ही उम्र में ब्याही गई
पर, न सदा सुहागन रह पाई
फिर भी न तनिक घबराई
घर परिवार हो या समाज
राजपाट या रण का मैदान
हर जिम्मेदारी हंसकर उठाई
काशी विश्वनाथमंदिर बनवाई
औरतों को शिक्षा दिलाई
जीवन का मूलमंत्र सिखाई
हर क्षेत्र में नाम कमाई
भूले न हम सब उनकी गाथा
इसलिये पुण्यतिथि पर दोहराई ॥
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मित्रों...,

आज से लगभग दो-सौ साल पहले की बात हैं कि जब ३१ मई १७२५ को एक साधारण किंतु संस्कारी परिवार में कन्या रूपी रत्न हुआ जिसे उन्होंने प्यार से नाम दिया अहिल्याबाई’ और उसे बचपन से इस तरह की नैतिक शिक्षा देकर पाला गया कि नन्हे मन का बल तो मजबूत हुआ ही साथ तन पर भी उसका बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा जिससे कि चरित्र की नींव पर साहस का अद्भुत संचार हुआ जिसने अंदर ही अंदर हौंसलों की इक बुलंद ईमारत तैयार कर दी तभी तो जब नादान उम्र में इनका विवाह एक ऐसे शक्तिशाली राज-परिवार में हुआ जिसने कि ‘इंदौर’ जैसे राज्य की स्थापना की थी तो वे उस नई जिम्मेदारी को संभालने में जरा भी न सकुचाई जी हाँ ‘महाराज मल्हार राव होल्कर’ ही वो नाम हैं जिसको ये श्रेय जाता हैं कि उन्होंने ‘इंदौर’ नाम के साम्राज्य की बुनियाद रखी और उनके के ही  सुपुत्र ‘खंडेराव’ से ‘अहिल्या’ की शादी हुई थी । विवाह के बाद ‘अहिल्याबाई’ का एक पुत्र ‘मालेराव’ और एक कन्या ‘मुक्ताबाई’ हुई जिसे उन्होंने अपनी ही तरह के संस्कार देकर सींचना शुरू कर दिया और इसके साथ ही अपनी बुद्धि एवं चतुराई से राज-काज में भी अपना हाथ बंटाने लगी जिसे देखकर उनके ससुर उसकी बुद्धिमता से बेहद प्रभावित हुये और इस तरह उनका विवाहित जीवन खुशहाल चल रहा था पर, क़िस्मत में शायद कुछ अनहोनी लिखी थी तभी तो ब्याह के इतने कम अंतराल बाद ही १७५४ ई. में उनके पतिदेव ‘खंडेराव’ का निधन हो गया और अभी वे इस सदमे से उबर भी न सकी थी कि उनके ससुर ‘मल्हार राव’ भी एकाएक गुजर गये जिसके कारण एकाएक ही पूरे राज्य के शासन की बागड़ोर महारानी अहिल्या बाई के कोमल हाथों में आ गयी लेकिन उन्होंने बड़ी कार्य कुशलता से जीवन पर्यंत इसका निर्वहन किया तभी तो आदर्शवादी शासन व्यवस्था के लिये आज भी उनको याद किया जाता हैं ।

इतिहास में तो वे अपनी उदारता और प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं कहते हैं कि उसके बाद तो उनका सारा जीवन वैराग्य, कर्त्तव्य-पालन और परमार्थ की साधना का बन गया और उन्होंने जेवर या श्रृंगार त्यागकर केवल श्वेत वस्त्र पहनना शुरू कर दिया और जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वे ‘भगवान शिव’ की बहुत बड़ी भक्त थी तभी तो उनके सभी चित्रों में वे हाथ में शिवलिंग लिये दिखाई देती हैं और जब तक वे उनकी पूजा-पाठ न कर ले जल की एक बूंद तक मुंह में न लेती थी यहाँ तक कि उन्होंने तो अपने पूरे राज्य को भगवान् भोलेनाथ के चरणों में ही अर्पित कर दिया था और खुद केवल एक सेविका की तरह उसका संचालन करती तभी तो किसी भी राजाज्ञा पर वे अपने हस्ताक्षर या अपना नाम नहीं लिखती बल्कि सबसे नीचे केवल ‘श्री शंकर’ लिख देती थी और अपनी राजमुद्रा पर भी उन्होंने शिवलिंग एवं बिल्व पत्र का चित्र गुदवाया था जो कि उनकी महाकाल के प्रति अपरिमित सेवा-भक्ति का परिचायक हैं । उस वक़्त उनके शासन-काल में चोर-डाकुओं का बड़ा आतंक था जिससे कि राज्य में चारों तरफ़ बड़ी अशांति थी अतः ऐसी ऐसी हालत में उन्होंने महसूस किया कि चूँकि एक राजा का प्रथम कर्तव्य अपने राज्य में प्रजा की हिफ़ाजत करते हुये शांति का माहौल बनाये रखना हैं तो फिर क्या था शीघ्र ही उन्होंने ऐसी नीति बनाई कि राज्य के सभी उग्रवादी तत्वों को समाप्त कर दिया गया जिससे कि वहां सुख-शांति स्थापित हो सके फिर अपने राज्य का विस्तार करने के लिये उसे अलग-अलग तहसील व जिलों में विभाजित कर उनमें प्रजा को न्याय दिलाने हेतु सशक्त न्यायपालिका की व्यवस्था की साथ ये भी ध्यान रखा कि यदि कोई उनके न्याय से संतुष्ट न हो तो वो अपनी अपील सीधे महारानी के पास भी ला सकता हैं
ये तो थी उनकी शासन व्यवस्था की बात लेकिन उन्होंने तो सामजिक कार्य भी अनेक किये और आज जिस महिला सशक्तिकरण की हम बात करते हैं उसके लिये उन्होंने दो-सौ साल पहले न केवल प्रयास किये बल्कि स्वयं ही उसकी पैरोकार बनी तभी तो उनके समय में जो ये नियम था कि यदि किसी भी स्त्री का पति असमय ही उसका साथ छोड़ चले जाये तो ऐसी स्थिति में उसकी संपति को राजकोष में जमा कर दिया जाये लेकिन उन्होंने इस नियम का न केवल विरोध किया बल्कि इसे बंद ही करवा दिया तथा अन्य महिलाओं को भी ये अधिकार दिया कि वो भी अपने धन का उपयोग स्वेच्छा से कर सकती हैं इस तरह अपने स्वाबलंबी व्यक्तित्व से उन्होंने जो छवि निर्मित की वो आज भी हम सबके लिये अनुकरणीय हैं क्योंकि पति व ससुर के जाने के बाद अकेले हो जाने पर भी वे घबराई नहीं बल्कि एक बड़े राज्य को तो सफलतापूर्वक चलाई ही साथ ही जब उनके राज्य में किसी शत्रु में आक्रमण किया तो भी वो जरा भी न डरी बल्कि हाथी पर सवार होकर युद्ध के मैदान में रण चंडी की तरह उतर पड़ी और एक कुशल योद्धा की तरह दुश्मन का सामना करते हुये वीरता से लड़ी और इस तरह कई युद्धों में उन्होंने दिलेरी के साथ शिरकत की और भारत देश के अनेक स्थानों में कई मंदिर, धर्मशाला, बावड़ी, शिक्षा संस्थान बनवाये ताकि लडकियाँ शिक्षित होकर अपने पांव में खड़ी हो सके इसके अलावा सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं जिसका गुणगान अब भी ‘काशी विश्वनाथ’ का अलौकिक मंदिर स्वयं करता हैं क्योंकि ये ‘रानी अहिल्याबाई’ के द्वारा ही बनवाया गया था और इसके बारे में एक किवदंती हैं कि एक बार उनके सपने में भगवन शंकर आये थे जिनकी प्रेरणा से उन्होंने ये कदम उठाया ।

इस तरह ‘महारानी अहिल्याबाई होल्कर’ आजीवन ही अपने राज्य के साथ-साथ समाज एवं देश के लिये काम-काज करते हुये आज ही के दिन १३ अगस्त १७९५ को वे इस दुनिया को अलविदा कर गयी पर, उनका कार्य, बनवाई गयी इमारतें और उनका जीवंत राज्य ‘इंदौर’ सब आज भी उनके गौरव का बखान करते हैं जिसे भूल पाना उनके त्याग-समर्पण के प्रति कृतध्नता होगी... आज इस पुण्यदिवस पर उस ओजस्वी मूर्ति को मन से नमन... :) :) :) !!!   
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१३ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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