गुरुवार, 20 अगस्त 2015

सुर-२३२ : "फिर दोहराये... बचपन की बातें... जो पीछे छोड़ आये...!!!"



कितनी बातें
सीखी थी बचपन में
पर, भूल गये वो सब
चार ही दिन में
जिसने भरे अनगिनत रंग
जीवन के कोरे चित्र में
पढ़कर दो अक्षर
चढ़कर कामयाबी की सीढ़ी
छोड़ दिये वो पड़ाव पीछे
जिनसे गुजरकर ही
पहुँच सके अपनी मंजिल में 
वो नन्हे-नन्हे कदम
भले ही अब बडे हो गये
पर, क्यों भूल गये कि यही तो
लेकर आये सुनहरे आज में
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मित्रों...,

जैसे ही नन्ही ‘सुरभि’ जागती उसकी दादी माँ उसे तुरंत बोलती बेटा सबसे पहले अपने दोनों हाथों को जोड़कर ये ‘करमंत्र’ बोलो और वो मासूम उसे उसी तरह अपनी कोमल बोली में दोहराती---

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

फिर वो उसे बोलती अब धरती पर अपने पैर रखने से पहले इसे स्पर्श कर नमन करो और फिर जल्दी से ‘पृथ्वी मंत्र’ बोलो तो ‘सुरभि’ ने तुरंत उनका कहा मान वैसा ही कह दिया---

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते ।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव ॥
 
उसके बाद जब वो स्कूल गयी तो सबके साथ-साथ बड़ी श्रद्धा से प्रार्थना करने लगी और उस सामूहिक प्रार्थना से समूचा वातावरण ही बड़ा पावन हो गया था फिर बडे कायदे से उन बच्चों ने अपनी-अपनी क्लास में प्रवेश किया और जो भी उन्हें अपने घर या स्कूल में नैतिक व्यवहार सिखाये गये थे उसका अनुकरण करने लगे और जब खाने की छुट्टी हुई तो सारे बच्चे जोर-जोर से भोजन मंत्र पढ़ने लगे---

ॐ सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु ।
मा विद्‌विषावहै ॥

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:: ॥

जिससे सिर्फ़ कक्षा ही नहीं बल्कि पूरा विद्यालय ही गूंज उठा और चारों तरफ से आती उस प्रतिध्वनि ने उस माहौल को सकारात्मक ऊर्जा से भर दिया

घर आकर भी सुरभि स्कूल में सिखाई गयी अच्छी बातों को भूलती नहीं बल्कि घर पर सबको अपने साथ-साथ वैसा ही करने को कहती लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे वो बड़ी होती गयी उसे पता ही नहीं चला कि बचपन में सीखी प्यारी बातें और नैतिकता के पढाये गये सबक वो कब किस तरह भूल गयी कॉलेज में आते ही उसका लहजा रहन-सहन सब कुछ ऐसा बदला कि उनकी धुंधली यादें किसी कोने में सिमटी ही रह गयी और वही सुरभि जो किसी की थाली में अन्न का एक दाना पड़े रहने पर या कहीं गंदगी होने पर न सिर्फ़ उनको टोकती बल्कि खुद भी इसका बड़ा ध्यान रखती थी वही अब रेस्टारेंट में अपने ही दिये आर्डर को पसंद न आने पर वैसा का वैसा ही छोड़ देती और उसका अपना कमरा उसने कब से नहीं जमाया उसे याद नहीं या उसका सामान जो उसकी नजरों के सामने ही बेतरतीब पड़ा उसे यथास्थान रखने की उसे सुध भी न रहती

सिर्फ़ ‘सुरभि’ भी नहीं हर किसी का यही हाल होता जब वो बालपन की दहलीज़ लांघकर किशोरावस्था से योवन तक बढ़ता न जाने किस तरह बचपन की वो छोटी-छोटी पर बड़ी ही महत्वपूर्ण सीखें बड़ी ही आसानी से भूल जाता जिनको यदि याद रखे तो उसका जीवन आदर्श की मिसाल बन जाता पर, जाने या अनजाने सबके साथ ऐसा होता कि जिन नैतिक शिक्षाओं से उसके भावी जीवन की बुनियाद खड़ी होती उन्हें ही वो बिसरा देता तो क्यों न आज उसे ही याद कर फिर से उस बीते कल में लौट जाये जहाँ न जाने कितनी कीमती सीख यहाँ-वहां बिखरी पड़ी हैं उन्हें फिर बीनकर से आज में ले  आये चलो फिर से वही सबक दोहराये... जीवन मंत्र दोहराये... जिन्हें पीछे छोड़ आये... :) :) :) !!!   
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२० अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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