बुधवार, 12 अगस्त 2015

सुर-२२४ : "झूला और नारी... एक दूजे के साथी...!!!"

‘झूला’ 
और ‘सावन’
जुड़े कुछ ऐसे
एक दूसरे से कि
लगते अधूरे
एक दूजे के बिन 
तभी तो एक की आमद
बन जाती दूजे की भी
आगमन की वजह
जो देती खुशियाँ सबको
पर, नारी के लिये तो
इनका आना साथ ले आता
खुशियों की भी बरसात
जिससे बन जाती हर बात
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मित्रों...,

नारी जीवन झूले की तरह
इस पार कभी उस पार कभी
होंठों पे मधुर मुस्कान कभी
आँखों में अंसुवन धार कभी
कितने सुख देती है जग को
मा बेटी बहन पत्नी बन कर
है कितना कठिन जीवन इसका
समझा ना इसे संसार कभी

पुरानी ‘औरत’ फिल्म के मधुर गीत की ये चंद पंक्तियाँ अपने आप में एक गहरा दर्शन छुपाये हुये  हैं जो ‘झूले’ और ‘नारी’ के बीच समानता बताने के साथ-साथ ही नारी के उसके प्रति लगाव को भी दर्शाती हैं वाकई इसके प्रति किसी ‘स्त्री’ का जो रुझान होता हैं वैसा अन्य किसी का भी नहीं जबकि ये सबको ही लुभाता हैं तभी तो जो भी इस देखे वो ही इसकी सवारी करने को मचल जाता हैं और हर किसी ने अपने जीवन में एक न एक बार तो इसका आनंद उठाया ही होगा लेकिन इसका जो मज़ा सावन के दिनों में आता हैं वैसा और किसी भी मौसम में महसूस नहीं होता तभी तो ‘सावन’ के आते ही हर गली-मुहल्ले में ये नजर आने लगता पेड़ की डालियों पर केवल आम के बोर ही नहीं बल्कि लंबी-लंबी रस्सियों से बंधा एक साधारण सा झूला दिखाई देने लगता तो कहीं-कहीं पुराने टायर को ही झूले के तरह टांग दिया जाता तो कहीं जालियों से बुना हुआ आरामदायक बिछौने जैसा झूला भी नज़र आ जाता जो इंसान को सुकून के साथ-साथ अपने बचपन के दिनों में लौटा ले जाता जहाँ अपने साथियों के साथ सब लोग मस्ती करते हुये पेंगें मारते हुये एक-दूसरे से अधिक ऊंचा जाने की हौड लगाते खेलते तो कभी अपने दोस्त को गिनती गिन धक्का देते हुये बदले में उससे भी ऐसा ही  करने का वादा लेते और इस तरह ये मामूली सी शय हर किसी को गैर-मामूली खुशियाँ देती जिसे पाकर सब अपनी परेशानी भूल ख्यालों में खो जाते कहीं दूर कल्पना की नगरी में पहुँच जाते यही इस चीज़ का एक अनोखा अहसास हैं जिसकी वजह से हर कोई इसे पसंद करता हैं

इस तरह सावन का महिना जहाँ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से पावन और साधना के लिये सबसे अनुकूल समझा जाता हैं क्योंकि वो अपने साथ बारिश ही नहीं पर्वों की भी झड़ी लेकर आता हैं वही वो स्त्रियों के लिये तो एक विशेष ख़ुशी का सबब बन जाता क्योंकि इसके आते ही उसके हृदय में ख़ुशी का जो संचार होता उससे उसके चेहरे की आभा भी कई गुना बढ़ जाती ये महिना हैं ही ऐसा जो हर किसी के लिये कुछ न कुछ लेकर आता हैं तभी तो हर कोई इसके आते ही प्रसन्न हो जाता हैं चाहे फिर वो कोई बच्चा हो या युवा सबके लिये ही ‘सावन सांता’ के झोले में कोई न कोई सौगात होती जिसे पाकर उसका मन झुमने लगता लेकिन इन सबसे उपर इसका जो ख़ास आकर्षण हैं ‘झुला’ जिस पर बैठकर हर कोई आसमान को छूने की अपनी अतृप्त चाहत को पूरा कर पाने की कोशिश को अंजाम देने के अहसास से गुज़र पाता वाकई ‘हिंडोला’ पर बैठने एवं उसके उतार-चढ़ाव के संग हिलोरे लेने का ये अनुभव एकदम अद्भुत होता जिसे केवल उस पर बैठकर ही समझा जा सकता हैं अब जबकि आधुनिक युग में इसके भी अनेक आधुनिकतम संस्करण आ चुके हैं पर, किसी पेड़ पर रस्सी से बना हुआ झूला जो देता वो किसी भी और तकनीक से सम्भव नहीं हो पाता इसलिये तो आज भी इसका महत्व बना हुआ हैं केवल इतना हुआ कि अब ये शहरों में तो उतने नहीं बंधते लेकिन गाँव-देहात में अब भी दिखाई देते पर, यदि कहीं नज़र आ जाये तो फिर उस पर बैठने के मोह को छोड़ पाना आसान नहीं होता

एक नवजात शिशु भी इस अनुभूति को महसूस कर पाता तभी तो जो बच्चा किसी से भी चुप नहीं होता या सो नहीं पाता वो भी झूले में आकर चुपचाप ऐसे मीठी नींद की आगोश में चला जाता कि हर कोई ये देखकर चैन की साँस लेता और यही से उसका इस  बेजान मगर अहसास से भरपूर वस्तु से परिचय होता और फिर ऐसा अटूट रिश्ता बन जाता कि हर घर में इसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना ही रहता यहाँ तक कि इसे बनाने के लिये यदि कोई रस्सी न हो तो भी एक माँ अपनी पुरानी साड़ी या चुन्नी से इसका निर्माण कर लेती हैं जो ये बताने काफ़ी हैं कि ये दोनों किस तरह एक दूसरे से इतने करीबी रूप में जुड़े हुये हैं तभी तो एक के बिना दूसरा पूरा नहीं होता... :) :) :) !!!         
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१२ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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