मंगलवार, 11 अगस्त 2015

सुर-२२३ : 'खुदीराम बोस का बलिदान... याद रखेगा हिंदुस्तान...!!!'

उम्र से नहीं
जज्बे से किसी की
महानता का बोध होता
तभी तो सौ साल जीकर भी
कोई बेनाम ही रह जाता
जबकि कोई छोटी-सी जिंदगी में
बड़ा अफ़साना लिख जाता
जिसे सदियों तक देश दोहराता
इसलिये जीना हैं तो बेखौफ़ जियो
सिर्फ़ अपने प्यारे वतन के लिये
गर, देना भी पड़े जान तो
बेहिचक दे दो इस देश के लिये ॥
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मित्रों...,

जीव-जंतु हो या पशु-पक्षी आज़ादी हर किसी को पसंद हैं तभी तो यदि बंद कर दो किसी को पिंजरे में तो वो भले ही मजबूरी में उस दासता को कुबूल करने या सहने को मज़बूर हो जाये पर, लगातार उससे निकलने कोशिशें करता और किसी ऐसे ही मौके की तलाश में रहता कि वापस उस खुले आसमान को बिना किसी बंधन के देख पाये और फिर से उस खुली हवा में सांस ले सके जहाँ वो भले ही सुविधा विहीन हो पर उस पर किसी का को कोई भी शासन न हो क्योंकि स्वतंत्रता के माहौल में तो सूखी रोटी भी भली लगती जबकि कैदखाने में तो कोई रोज पकवान भी खिलाये तो जी नहीं करता कुछ ऐसा ही महसूस किया उस नन्हे बच्चे ने जब उसने केवल खुद को ही नहीं बल्कि अपनी जन्मभूमि और हमवतनों को अपने ही घरों में किसी और मुल्क से आये बाशिंदों की गिरफ़्त में पाया जो उनसे न सिर्फ गुलामों की तरह व्यवहार करते बल्कि उनकी धन-दौलत ही नहीं साथ ही उनके देश की अनमोल विरासत व ख़जाने को भी अपने साथ चोरी-चोरी ले जा रहे थे । ३ दिसंबर १८८९ ई. को अविभाजित ‘बंगाल’ में ‘मिदनापुर’ ज़िले के ‘हबीबपुर गाँव’ में इस नन्हे क्रांतिवीर ‘खुदीराम बोस’ की पैदाइश ‘त्रैलोक्य नाथ बोस’ के घर हुई पर,  उनके बाल्यकाल में उनके सर से उनके माता-पिता का साया उठ गया तो ऐसे में उनकी बड़ी बहन ने उनका पालन-पोषण किया लेकिन उनकी देह में तो कोई देशभक्त की आत्मा बस्ती थी तो वो चुप किस तरह से बैठे रहते अतः जब १९०५ ई. में ‘बंगाल’ का विभाजन हुआ तो सोलह साल की नाज़ुक उमर में बालक ‘खुदीराम बोस’ के अंदर का लहू जोश मारने लगा और वो देश के  स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता करने जी-जान से जुट गये और इस तरह उस तेजस्वी सुकुमार के लक्ष्य का निर्धारण होने के साथ ही उसका पथ भी सुनिश्चित हो गया जो बेशक काँटों से भरा हुआ था पर, चलने वाला कभी नहीं डिगा और भारतीय इतिहास में अपनी क़ुरबानी के रक्त से वो अविस्मरणीय गाथा लिख गया जिसे पढ़कर नम आँखों से इस देश का हर वासी अब तक नमन करता हैं ।

‘खुदीराम बोस’ अपने बालपन से ही देश में होने वाली राजनितिक एवं सामाजिक गतिविधियों में शिरकत करने लगे थे और उस समय अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ निकलने वाले हर तरह के जलसे-जलूसों में हिस्सा लेकर जोर-जोर से फिरंगियों के ज़ुल्म के खिलाफ़ नारे लगाते क्योंकि कमसिन ‘बोस’ को तो अपने वतन की जन्मदात्री ‘भारतमाता’ की बेबस जंजीरों में जकड़ी छवि ने इतना आहत किया था कि उनको बस यही एक लगन  थी कि चाहे जान चली जाये पर, वो किसी भी तरह उनको इस कैद से मुक्त कर सके तो अपना फर्ज अदा कर जाने जाने का कोई भी शिकवा न होगा वरना, इन गुलामी में जीना तो मौत से भी बदतर हैं इसलिये सिर पर कफ़न बांधकर वो जंग-ए-आज़ादी में सहभागी बन गये थे और जिसके भीतर मौत का भय नहीं फिर वो किसी भी शय से नहीं डरता चाहे शत्रु  कितना भी ताकतवर क्यों न हो तभी तो आज के समय में जब बच्चे १६ साल की वय में अपने आप को ही नहीं जान पाते, सुविधाओं के बिना जीने की कल्पना नहीं करते वो भला किस तरह इस जज्बे को समझ सकते जहाँ कोई दूसरों की सुख की खातिर अपनी जान की परवाह नहीं करता । उस समय तो वैसे भी सबकी स्थिति एक ही समान थी अतः भारतीय स्वीतंत्रता आंदोलन में हर कोई बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा था ताकि वो अपने वतन को आज़ाद कर सके ऐसे में ‘खुदीराम बोस’ तो उस आज़ादी की लड़ाई के सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे जिन्हें कि भारत माता का सच्चा सपूत कहा जा सकता हैं जिन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार में यदि अपनी सहभागिता दिखाई तो जरूरत पड़ने पर ब्रिटिश अधिकारी के वाहन पर बम फेंकने से भी गुरेज नहीं किया जिसके लिये ८ जून, १९०८ को उन्हें ब्रिटिश अदालत के सम्मुख पेश किया गया और १३ जून को उस ज़ालिमाना सरकार की तरफ से उनको प्राणदण्ड की खतरनाक सजा सुनाई गयो वो भी मात्र पांच दिनों के भीतर जिसे सह पाना किसी के भी वश की बात नहीं थी फिर भी सारे विरोधों के बावजूद भी ११ अगस्त, १९०८ को इस सबसे छोटे मगर वीर क्रांतिकारी को फाँसी पर चढा़ दिया गया और इस तरह वो दिन सदा-सदा के लिये इतिहास में अमर हो गया ।

उनके इस कम उम्र बलिदान ने उनको इतना अधिक लोकप्रिय बना दिया कि उस समय बंगाल के जुलाहे एक ख़ास किस्म की किनारी वाली धोती बुनने लगे जिस पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था जिसे पहनकर हर देशवासी गर्व का अनुभव करता और इस तरह उनकी शाहदत ने समूचे देश में देशभक्ति का सैलाब ला दिया और सभी उनका अनुकरण करने लगे जिससे कि लाखों-करोड़ों आँखों के आज़ादी पाने के स्वपन को मूर्त रूप दिया जा सके और आख़िरकार १५ अगस्त १९४७ के दिन विभाजन की एक अंतहीन त्रासदी के साथ उसका समापन हुआ... आज भी जब १९ साल की नादान उमर में दिये गये उस महान बलिदान का स्मरण आता हैं तो हर किसी की आँख नम हो जाती हैं भारत माता के उस सच्चे छोटे सपूत को सभी देशवासियों की तरफ से एक बहुत बड़ा वाला सलाम... :) :) :) !!!  
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११ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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