रविवार, 23 अगस्त 2015

सुर-२३५ : "काव्य कथा - प्रेम की तलाश...!!!"


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मित्रों...,



‘प्रेम’ / ‘प्यार’ / ‘इश्क’ / ‘मुहब्बत’ / ‘लव’... जिस नाम से भी पुकारे उसे वो रूहानी अहसास मिलता तो सिर्फ़ किस्मत से हैं और कई बार तो जन्मों-जन्मों की तलाश के बाद इंसान को अपना सच्चा साथी मिलता हैं पर, आजकल इसका जो ‘शार्टकट’ तरीका या महज़ खुद की जरुरतो को पूरा करने जो बदला स्वरूप सामने आया हैं वो चिंतनीय हैं... जिसे नाम तो वही दिया जा रहा हैं लेकिन अब इन शब्दों में ही मायने नहीं बचे शायद, तभी तो बडे हल्के लहजे में उसका जिक्र किया जाता और उसी तरह से उसका निर्वाह भी किया जाता जहाँ लैला-मजनू, हीर-राँझा, शिरी-फरहाद के किस्सों को अव्यवहारिक बोले तो ‘अनप्रैक्टिकल’ बताकर स्वयं को ‘एडवांस’ और अपनी उस तथाकथित भावना को भी उसी तरह ‘मॉडर्न’ बताकर ‘लिव-इन’ या ‘मैत्री करार’ के जरिये अपनी इच्छा पूर्ति का सामान किया जाता... ऐसे में अंदर जो सच्चे प्रेम की ख्वाहिश या तलाश होती वो लगातार चलती रहती जिसके कारण साथी बदलते का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता जो प्यासी रूह को भटकाता रहता पर, खुद खोजने वाले को ये पता नहीं होता... उसी भटकन को अभिव्यक्त करती एक काव्य-कथा---       

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दो खाली वक़्त
मिले एक समय पर
और बैठने लगे साथ-साथ
बतियाने भी लगे
फिर जब उकता गये
एक दूजे से
या कहीं भर गये
एक-दुसरे के खालीपन से तो
छिटककर दूर हो गये
तलाशने कोई ओर
‘रिक्त स्थान’
जिसे भर सके अपने प्रेम से
या जिसमें उड़ेल सके
अपना भरा पैमाना
और फिर ख़ाली होकर
भरें कुछ नया
इसी खानापूर्ति में
बिता रहे जिंदगी अपनी
बहुत से खाली पल
जो आधे-अधूरे हैं
तलाश रहे अपना समय
वो कहते हैं न कि...
सबका होता हैं
‘एक समय’
पर, सबको मिलता नहीं
तो वो यूँ ही
दूसरों का चुराकर
अपना खालीपन मिटाते हैं
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इस तरह ‘फिल इन द ब्लेंक्स’ की तरह अपने जीवन में जो कमी हैं उसे भरने का प्रयास करते-करते उम्र गुजर जाती पर, ताउम्र वो कड़ी नहीं मिलती जो आपकी ‘प्रेम चैन’ को जोड़ दे... ‘प्यार’ का नाज़ुक रोपा तो लगते-लगते ही जड़ें पकड़ता और पनपता हैं पर, उसके परिपक्व होने तक का इंतज़ार अब कोई नहीं करना चाहता उसे तो तुरंत फल चाहिये तो ये तो होना ही हैं... तभी तो कई बार इंसान वहीँ लौटकर भी जाता जिस मुकाम को कहीं पीछे छोड़ आया था... :) :) :) !!!    
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२३ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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