बुधवार, 19 अगस्त 2015

सुर-२३१ : "लघुकथा : दिल या चेहरा...!!!"


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मित्रों...,



उसके चेहरे पर सदा दिल का गुमां होता था उसे तभी तो उसकी जुबां, उसकी हर बात और हर अदा में वही पाकीज़गी झलकती थी जो उसके करीब होने पर उसके दिल की धडकनों में सुनाई देती थी बिल्कुल वैसी ही जैसी मंदिर की घंटी या मस्जिद की अजान में गूंजती थी कभी भी उसके मुख या दिल में कोई फर्क महसूस नहीं किया उसने तभी तो उसने उसे अपने मन मंदिर में किसी मासूम फ़रिश्ते की तरह बसा रखा था

ये ख़ालिस अक्स कोई और नहीं बल्कि खुद उसका अपना बचपन का निर्दोष हर चालाकी से परे वही निश्छल मुखड़ा था जो अब इतना बदला गया कि उसके दिल या चेहरे दोनों में कोई साम्य बाकी न रहा था बल्कि यूँ कहे कि जहाँ उसका दिल दुनिया के सुर-ताल के साथ गाना सिखा चुका था तो वहीँ उसका चेहरा भी लोगों के अनुसार भाव परिवर्तन करने में माहिर हो चुका था ऐसे में उसके चले जाने पर अक्सर  तन्हाई में उसे याद करता तभी शायद, उसके अपने ही बेटे की शक्ल में वो फिर आ गया था और फिर से उसे आईने में चेहरे की जगह दिल नजर आने लगा और मंदिर की घंटियाँ भी फिर से साफ-साफ सुनाई देने लगी थी
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१९ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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