शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

सुर-२२६ : "करती विलाप भारतमाता... टूटे न भाई का भाई से नाता...!!!"


बीत गयी
लगभग दो शताब्दियाँ
तब जाकर मिली
आज़ादी की खुशियाँ
जिसने ली अनंत कुर्बानियां
अभी गुज़री भी नहीं
एक शताब्दी तक पर...
जरा देखो तो सूरत-ए-हाल
देश भी अपना
लोग भी सब अपने
राजा प्रजा सब हैं अपनी
फिर भी न खत्म हुई दुश्वारियां
साल दर साल के साथ
बढ़ती ही जा रही परेशानियाँ
बेहतर हो कि न रहे
अब भी दूसरों के भरोसे
आओ खुद करें हम सब मिलकर
नये बदलाव की तैयारियां
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मित्रों...,

आज वो दिन हैं जब ‘अखंड भारत’ का एक और विभाजन हुआ और ये देखकर ‘भारत माता’ बिलख उठी वो खामोश रो रही थी उस दर्द से तड़फ रही थी जो अपने हिस्से के जुदा होने पर एक माँ को होता हैं सच, इन फिरंगियों ने इस देश का इतना नुकसान किया कि उसकी भारपाई किसी भी तरह से संभव नहीं और ये सिलसिला अब भी रुक जाता तो शायद, ‘भारत माता’ ये संतोष कर खुश हो लेती कि चलो दो ही टुकड़े हुये पर, अपनों के शासन के बाद जिस तरह से वो बंटा हैं तो विश्वास करना मुश्किल होता हैं कि कभी ये सब कुछ अविभाजित था सभी लोग एक साथ रहते थे सब कुछ हमारे ही वजूद का अंग था पर, अंग्रेज तो हमें ‘फूट डालो राज करो’ का एक रक्तबीजी मंत्र देकर गये जिसे राजनेताओं ने इस तरह से आत्मसात किया कि आज भी वे इसी संजीवनी मंतर के बल पर अपना शासन चला रहे हैं और हम सब समझते हुए जानते हुए भी ख़ामोश रहते हैं क्योंकि हमने ये मान लिया कि इस ‘सिस्टम’ को बदल पाना हम सबके बूते की बात नहीं जबकि हम ये भूल गये कि वो हम ही थे जिन्होंने अपने से भी ज्यादा ताकतवार, बुद्धिमान, चतुर और ज़ालिम शत्रुओं को एकजुट होकर इस मिट्टी से खदेड़ था पर, अब जब अपने ही लोगों से घिरे हुये हैं तो उनसे निपट पाना मुश्किल लग रहा हैं क्यों ???

शायद... इसलिये कि हमेशा से ही अपनों से ही लड़ाई सबसे कठिन होती हैं अगर हम दाये हाथ से बाये हाथ को मारे तो उसका दर्द भी तो ख़ुद को ही झेलना पड़ता हैं न और इसी पीड़ा की तकलीफ़ से हम अपने कदम पीछे खिंच लेते हैं पर, धर्मग्रंथों का भी अध्ययन करें तो ये पाते हैं कि यदि शरीर का कोई अंग हमारी मौत की वजह बन रहा हो तो अपनी आगे की जिंदगी की खातिर हमें उसे काट देना चाहिये तो फिर हम क्यों इस असहनीय वेदना को सह रहे ??? इसकी वजह कोई एक नहीं अनेक हैं और उतने ही समाधान भी हाज़िर तो ऐसे में सब सोचते कि कौन इस पचड़े में पड़े जैसा चल रहा हैं वैसा ही चलने दो हमें कौन सा हमेशा यहाँ बने रहना हैं जब तक जीना हैं मजे से जिये और आगे जिसको परेशानी होगी वो खुद उसके लिये लड़े-भिड़े हमें क्या हमारी अपनी ‘लाइफ’ तो किसी कारण से ‘डिस्टर्ब’ हो नहीं रही तो हम तो भई अपने घर में आराम से रहे जिसको दिक्कत हो वो जाये सरकार के पास और बस, इस तरह कोई भी परिवर्तन की बयार नहीं आ पाती याने कि हम इतने अधिक स्वार्थी और मतलबी हो चुके हैं कि जिस चीज़ से हमने नुकसान नहीं या जिससे हमारा फ़ायदा नहीं हमको उससे कोई सरोकार भी नहीं हर कोई इस कड़वी हक़ीकत से वाकिफ़ हैं पर, अफ़सोस कि अब देश का मामला भी सबका अपना व्यक्तिगत हैं जिसकी अपनी दाल-रोटी चल रही उसे ये फ़िकर नहीं कि दूसरे के घर चूल्हा जला या नहीं जबकि इसी देश में आज़ादी के पहले और कुछ समय बाद तक हम सब न केवल एक होने का दम भरते थे बल्कि एकता को सही मायनों में निभाते भी थे और अब तो ऐसे ही किसी अवसरों पर उसका केवल कोरा गुणगान कर लेते हैं

आज के दिन देश के तथाकथित स्वामियों ने इसे केवल अपनी ही संपत्ति समझकर दो हिस्सों में बाँट दिया बिना ये सोचे-समझे कि इसका दीर्घकालिक परिणाम क्या होगा अंग्रेजों ने तो दूरदर्शिता दिखाई जो इस देश को स्वतंत्रता का तोहफ़ा तो दिया लेकिन उसके साथ ही अनंत काल तक देशवासियों को एक-दूसरे से लड़वाने की ऐसी व्यवस्था की कि पहले जहाँ हम उनके शिकार बनते थे वहीँ अब अपनों के ही हाथों मर रहे हैं और आये दिन किसी युद्ध की आशंका से एक-दूसरे की जान के ग्राहक बने हुये हैं और ये स्थिति तो उससे भी ज्यादा भयावह हैं पर, कुछ ऐसी हैं कि जब आदमी को लंबे समय तक भूखा रखकर फिर उसे एक निवाला भी परोस दिया जाये तो फिर भले ही वो उसकी अपनी ही संपत्ति से क्यों न खरीदा गया हो वो न सिर्फ़ आपका शुक्रगुज़ार होता बल्कि आजीवन आपका ही गुणगान करता हैं तो बस, वही हो रहा हमारा ही वतन हमको ही देकर वो भी दो हिस्सों में साथ जीवन भर की जंग का सामान देकर वो तो चले गये और हम आज भी उनकी ही तरिग कर रहे हैं जन गन मन अधिनायक जय हैं... क्या आप जानते हैं ये अधिनायक वास्तव में कौन हैं यदि ‘हाँ’ तो बताने की जरूरत नहीं और यदि ‘ना’ तो भी बताने की जरूरत नहीं... तो बस, उच्च स्वर में गाते रहिये जय हैं... जय हैं... जय हैं... जय... जय... जय... जय हैं... भारत माता की जय... वंदे मातरम... जय हिंद...                      
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१४ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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