सोमवार, 24 अगस्त 2015

सुर-२३६ : "चाहे राम कहो या शंकर... दोनों में नहीं कोई अंतर... !!!"

जय जय राम
जय भोलेनाथ
दोनों हैं...
अनाथों के नाथ
बनाते सबके
बिगड़े काम
चाहे बोलो राम-राम
या फिर बोलो जय महाकाल
कट जाता कैसा भी हो काल
इनमें भेद जो भी करता
वो नहीं ईश्वर को समझता
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मित्रों...,

एक दिन ‘पार्वतीजी’ ने ‘महादेवजी’ से पूछा---“आप हरदम क्या जपते रहते हैं ?’

तो उत्तर में महादेवजी ने उनको ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ सुना दिया

उसे सुनकर पार्वतीजी ने कहा---‘ये तो आपने एक हजार नाम बताये और इतने नामों का जाप करना तो सामान्य मनुष्य के लिये संभव नहीं हैं अतः कोई एक ऐसा नाम कहिये जो इन सहस्त्रों नामों के बराबर हो और उनके स्थान पर जपा जाये’

इस पर महादेवजी ने कहा---

“राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनाम ततुल्यम रामनाम वरानने ॥
राम राम शुभ नाम रटि सबखन आनंद-धाम ।
सहस नाम के तुल्य हैं, राम-नाम शुभ नाम ॥

केवल एक ‘राम’ नाम ही हजारों नाम के बराबर हैं जिसे जप कर आनंद धाम को प्राप्त किया जा सकता हैं अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने हृदय के सितार पर केवल इसी राग़ का गान करना चाहिये जिससे कि उसके सब काम अपने आप ही सध जाते हैं अतः भगवान् श्रीशंकर महामंत्र ‘श्रीराम’ नाम का निरंतर जप करते रहते हैं ।

‘श्रीरामचरितमानस’ में भी वर्णन आया हैं कि भगवान् ‘शिव’ महामंत्र ‘श्रीराम’ नाम का जप किया करते हैं और ‘काशी’ में रहने वालों के कानों में ‘श्रीराम’ नाम का संजीवन मंत्र फूंककर उन्हें जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त कर देते हैं---

कासी मरत जंतु अवलोकी ।
जासु नाम बल करऊँ बिसोकी ॥
सोई प्रभु मोर चराचर स्वामी ।
रघुवर सब उर अंतरजामी ॥

भगवान् ‘शिव’ अयोध्यानाथ श्रीराम से कहते हैं---“प्रभो, आपके नामोच्चारण से कृतार्थ होकर मैं ‘पार्वती’ सहित निरंतर ‘काशी’ में निवास करता हूँ और वहां मरणासन्न प्राणियों को मुक्ति दिलाने के लिये उनके कान में आपके तारक मंत्र ‘राम’ नाम का उपदेश करता हूँ ।

पुराणों में कथा आती हैं कि ‘देवासुर संग्राम’ के पूर्व हुये ‘अमृत मंथन’ में जब सबसे पहले ‘हलाहल’ निकला तो सभी ‘देवता’ और ‘असुर’ घबरा गये तब भगवान् ‘शिव’ ने उनको इस संकट से उबारा और जब वे ‘विषपान’ करने लगे तो शिवगणों में हाहाकार मच गया और सभी शिवभक्त दुखी हो गये तब उन सबको आश्वासन देते हुये भगवान् ‘शंकर’ ने कहा--- “भगवान् ‘श्रीराम’ का नाम संपूर्ण मन्त्रों का बीज मूल हैं, वह मेरा जीवन हैं, मेरे सर्वांग में पुर्णतः प्रविष्ट हो चुका हैं अतः अब ‘हलाहल’ विष हो या प्रलायानल ज्वाला हो या मृत्युमुख ही क्यों न हो मुझे उसके किंचित भी भय नहीं” और ‘महाकाल’ ने श्रीराम नाम का आश्रय लेकर ही ‘कालकूट’ नामक महाविष का पान कर लिया और उनके लिये वह प्राणहारी विष, अमृत हो गया---

नाम प्रभाऊ जान सिव नीको । कालकूट फलू दिन्ह अमी को ॥

इसी तरह भगवान् ‘विष्णु’ का कहना हैं कि--- “शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय हैं, वे जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती अतः आप शिवशतनाम का जप कीजिये, इससे आपके सब दोष-पाप मिट जायेंगे और पूर्ण ज्ञान वैराग्य ततः भक्ति की राशि सदा के लिये आपके हृदय में स्थित हो जायेगी” ।

जपहु जाई संकर सत नामा । होइहि हृदय तुरत विश्रामा ॥
कोऊ नहि सिव समान प्रिय मोरे । असि परतीति तजहु जनि भोरे ।

जेहि पर कृपा न करहि पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥          

वैसे देखा जाये तो ‘शिव’ और ‘राम’ दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही नाम हैं पर, हम ही उसमें अंतर करते हैं और उनके नाम से पृथक संप्रदाय बना लेते हैं जो हमारी अल्प बुद्धि का परिचायक हैं जबकि हर धर्मग्रंथ इन्हें एक रूप मान ये दर्शाते कि यदि आप ‘शिव’ को पूजते हैं पर ‘राम’ को भिन्न समझते हैं तो आपको उनकी पूर्ण कृपा प्राप्त नहीं होगी इसी प्रकार यदि आप ‘श्रीराम’ की उपासना करते हैं पर, ‘शिव’ की अवहेलना करते हैं तो भी आपकी साधना अधूरी रहेगी तो आज ‘सावन’ के इस अंतिम सोमवार का यही संदेश हैं कि हम भी इनको एक मान ले तो फिर ‘राम’ कहे या ‘शिव’ अंतर से दूसरा ना स्वतः ही गूंजेगा... तो प्रेम और भक्ति से बोले जय जय ‘राम’... जय ‘भोलेनाथ’... बनाओ सबके बिगड़े काम... हो न कोई जग में अनाथ... :) :) :) !!!         
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२४ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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