गुरुवार, 6 अगस्त 2015

सुर-२१८ : "हिरोशिमा और नागासाकी... सुना रहे पीड़ित मानवता की कहानी...!!!"

विज्ञान एक वरदान
पर, बन जाता अभिशाप
जब करता अन्याय इंसान
स्वार्थ हित में चाहता
करना दुनिया पर अधिकार
बना खतरनाक हथियार
भूल जाता कि जीवन हैं
ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार
गर, उसे दे नहीं सकता
तो फिर क्यों करना अत्याचार
जबकि एक दिन कुदरत
स्वयं ही करेगी सृष्टि का संहार
तो बेहतर यही हैं कि...
चलाने दे उपरवाले को ही ये संसार
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मित्रों...,

इंसानी फ़ितरत के बारे में तो जितना भी कहा जाये या लिखा जाये या फिर उसे समझा जाये कम ही हैं क्योंकि ये किसी चक्रव्यूह से कम नहीं और एक बार इसके भीतर प्रवेश करने पर पता चलता कि इसका कहीं भी कोई अंत नहीं उस पर बेलगाम घोड़े की तरह बेकाबू ‘मन’ की चंचलता जो खुद तो नगण्य होता पर, बड़ी आसानी से आदमकद मानवी काया को अपने इशारों पर नचाता केवल चंद साधक गण या संयमी इंसानों को छोड़ दे तो बाकी सब उसके हाथों की कठपुतली होते उस पर यदि उनके अंदर की नकारात्मक प्रवृतियां अधिक सक्रिय हो तो ‘करेला नीम चढ़ा’ की कहावत चरितार्थ होती हैं और ऐसे में जब किसी व्यक्ति के हाथ में सत्ता की बागड़ोर आ जाये तो पता नहीं किस तरह उसके भीतर का सोया हुआ शैतान जाग जाता जो सारी दुनिया को अपने कब्जे में करने की कामना के वशीभूत होकर सिर्फ अपने आप को संतुष्ट करने के चक्कर में कभी-कभी ऐसा कदम उठा लेता कि सदियों तक उसका खामियाज़ा आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ता हैं

कुछ ऐसा ही वाकया हुआ आज ही के दिन लगभग ७० साल पहले जब ६ अगस्त १९४५ को स्वयं को महाशक्ति कहलाने की चाहत रखने वाले ‘अमरीका’ ने ‘जापान’ के एक औद्योगिक नगर ‘हिरोशिमा’ को अपना निशाना बनाते हुये वहां पर सबसे खतरनाक माने जाने वाले 'युरेनियम’ से बने ‘लिटिल बॉय' नामक अणुबम का परीक्षण करने हेतु उसे गिराया जबकि उस वक़्त वो कोई उजाड़ या वीराना क्षेत्र नहीं था बल्कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार उस समय शहर की  कुल आबादी २,५५,००० थी और जब ये विस्फ़ोट किया गया तो आधी से अधिक आबादी जिसमें हर उम्र के, हर तरह के लोग शामिल थे एक दिल दहलाने वाले धमाके के साथ ही धरती की गोद में समा गये और जो बच गये वो कोई सौभाग्यशाली या ख़ुशकिस्मत नहीं बल्कि बेहद दुर्भाग्यशाली थे क्योंकि अब उनके लिये सांस लेना भी दूभर हो गया था ज़िन्दगी सिवाय बोझ के और कुछ भी नहीं बची थी उस पर भी तड़फ-तड़फ के न केवल उनको जीना था बल्कि आगे आने वाली कई पुश्तों को उस अभिशाप को झेलने मजबूर होना था क्योंकि उस जानलेवा बम के विकिरण से वहां की हवाओं में जो जहरीलापन भर गया था वो इतनी जल्दी खत्म नहीं होने वाला था

काश, कि इस ज़लिमाना जुनून के बाद भी वहशी रुक जाता तो कुछ और जानें बच जाती लेकिन ऐसा हुआ नहीं चूँकि ‘अमरीका’ को तो अभी अपने बनाये गये इन शक्तिशाली अस्त्रों को थोड़ा और आज़माना था और उसके दुष्प्रभावों को देखना था तो उसने अपनी इस विनाश लीला को केवल दो दिन बाद ही ९ अगस्त १९४५ को पुनः दोहराते हुये ‘जापान’ के ही एक अन्य नगर ‘नागासाकी’ को अपना लक्ष्य बनाते हुये फैट मैननामक एक दूसरा ‘प्लूटोनियम बम’ गिराया  जिसमें कि अनुमानित ७४ हज़ार से अधिक निर्दोष बेकुसूर लोग विस्फोट व गर्मी के कारण मारे गये पर, जिसे सारी दुनिया पर अपनी धाक जमाना हो उसे किसी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता तभी तो उसने ‘जापान’ को अपने अधिकार में लेने और संपूर्ण विश्व के समक्ष अपनी महाशक्तिशाली छवि निर्मित करने के लिये आगे कुछ अन्य संहारक धमाकों की तैयारी भी कर रखी थी अंततः समझदारी दिखाते हुये ‘जापान’ के तत्कालिक सम्राट ‘हिरोहितो’ ने समर्पण कर दिया तब जाकर कहीं इन निर्मम हमलों का सिलसिला रुका पर, तब तक ये ‘मानवीयता पर मानवों के द्वारा किया गया सबसे अमानवीय आक्रमण था जिसने दुनिया के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई और आज भी जब-जब ये तिथियाँ आती हैं तो हर संवेदनशील इंसान की आँख नम हो जाती हैं और दुआ में हाथ उठते हैं कि कभी भी किसी को ऐसा दिन न देखना पड़े... आमीन... :) :) :) !!!
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०६ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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