प्रियजनों की
रक्षा का एक सूत्र
बांधे हाथ में
स्नेह से बना रक्षासूत्र
जो बनकर ढाल
करे हर बुरी बला से
अपनों की सुरक्षा पूरे साल
॥
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मित्रों...,
यूँ तो संपूर्ण ‘श्रावण
मास’ ही बड़ा पावन एवं शुभ फल देने वाला हैं पर, पूर्णिमा जिसे कि ‘रक्षाबंधन’ के पर्व के रूप में मनाया जाता हैं
बड़ा ही मंगलकारी त्यौहार हैं जो केवल भाई-बहन के स्नेह का उत्सव ही नहीं बल्कि हर
एक प्राणी को वर्ष भर अभय देने वाला बड़ा-ही पुण्यदायी संस्कार भी हैं तभी तो
पुराणों में लिखा गया हैं कि---
सर्वरोगोंपशमनम् सर्वा शुभ
विनाशनम् ।
सक्र्त्क्रते नाब्दमेकं
येन रक्षा कृता भवेत् ॥
इस शुभ पर्व पर धारण किया
हुआ ‘रक्षासूत्र’ सम्पूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है अतः इसे वर्ष में केवल
एक बार धारण करने से वर्ष भर मनुष्य रक्षित हो जाता है, यह पर्व समाज के टूटे हुए मनो को जोड़ने का सुंदर अवसर है
जिसके आगमन से कुटुंब में आपसी कलह समाप्त होने लगते हैं, दूरी मिटने लगती है, सामूहिक
संकल्पशक्ति साकार होने लगती है ।
यह महोत्सव आज से नहीं
बल्कि बहुत प्राचीन काल से मनाया जा रह हैं जिसका उल्लेख धर्मग्रंथों में आया हैं
जो इसे करोड़ों वर्ष पुराना दर्शाता हैं तब जब ‘देवता’
और ‘दानव’ के मध्य युद्ध चल रहा था लेकिन अनेक वर्षों तक युद्ध होने के बाद भी किसी
तरह का निर्णय नहीं हो पा रहा था तो ऐसे
में देवराज ‘इन्द्र’ ने गुरु ‘ब्रहस्पतिजी’ से कहा कि ‘गुरुवर ! आप ही बताओ क्या करें क्योंकि इतना समय बीत जाने
के बाद भी लगता नहीं कि कोई भी फ़ैसला हो पा रहा हैं ऐसे में न तो हम अधिक लड़ ही
सकते हैं और न ही इस रण से भाग सकते हैं‘ तब ‘इन्द्र’ की पत्नीं शचि ने कहा, ‘पतिदेव ! कल
मैं आपको अपने संकल्प– सूत्र में बांधूगी और देखियेगा उसके बाद तुरंत निर्णय हो
जायेगा’ तो अगले दिन श्रावण पूर्णिमा की शुभ बेला में ब्राह्मणों के द्वारा
वेदमंत्र का उच्चारण और ओंकार का गुंजन हुआ जिसके
बाद ‘शचि’ ने अपना संकल्प जोड़कर वह सूत्र ‘इंद्र’ की दायीं कलाई में बांध दिया जिससे ‘इन्द्र’ का मनोबल, निर्णयबल, भावबल, पुण्यबल कई गुना बढ़ गया और
उस दिन इस संकल्पबल ने ऐसा जोहर दिखाया कि ‘इन्द्र’ दैत्यों को परास्त करके
देवताओं को विजयी बनाने में सफल हो गये जो ये बताता हैं कि रक्षा के निमित बाँधा गया
‘कलावा’ या ‘रक्षासूत्र’ कोई भी किसी प्रियजन को बांध उसके लिये एक अदृश्य सुरक्षा
मडंल का निर्माण कर सकता हैं ।
इसके अतिरिक्त पुराणों में
एक अन्य कथा भी आती है जो इस प्रकार है--- जब दानवो के राजा ‘बलि’ ने अपने सौ यज्ञ
पुरे कर लिए तो उन्होंने चाहा कि उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो तब राजा
बलि कि इस अभिलाषा का ज्ञान होते ही देवराज
इन्द्र का सिहांसन डोलने लगा और जब देवराज ‘इंद्र’ को कोई उपाय नहीं सुझा तो वो
घबरा कर भगवान ‘विष्णु’ की शरण में गयें और ‘बलि’ की मंशा बता इस समस्या का निदान
करने को कहा । देवराज ‘इंद्र’ की बात सुनकर भगवान ‘विष्णु’ वामन अवतार ले, ब्राह्माण वेश धर कर, राजा ‘बलि’
के यहां भिक्षा मांगने पहुंच गयें क्योंकि राजा ‘बलि’ अपने दिए गए वचन को हर हाल
में पूरा करते थे अतः जब राज ‘बलि’ ने ब्राह्माण बने ‘श्री विष्णु’ से कुछ माँगने
को कहां तो उन्होंने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली तो राजा बलि ने उन्हें तीन पग
भूमि दान में देते हुए कहां की आप अपने तीन पग नाप ले । वामन रुप में भगवान ने एक
पग में ‘स्वर्ग’ ओर दुसरे पग में ‘पृ्थ्वी’ को नाप लिया और फिर भी तीसरा पैर रखना
शेष था जिससे ‘बलि’ के सामने संकट उत्पन्न हो गया और आखिरकार उन्होंने अपना सिर
भगवान के आगे कर दिया और कहां तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए वामन भगवान ने
वैसा ही किया, श्री विष्णु के पैर रखते ही राजा ‘बलि’ पाताल लोक पहुंच गए।
‘बलि’ के द्वारा वचन का पालन करने पर, भगवान
विष्णु अत्यन्त खुश हुए, उन्होंने आग्रह किया कि राजा ‘बलि’ उनसे कुछ मांग लें इसके
बदले में ‘बलि’ ने रात दिन भगवान को अपने सामने रहने का वचन मांग लिया, ‘श्री विष्णु’ को अपना वचन का पालन करते हुए, राजा ‘बलि’ का द्वारपाल बनना पडा । जब यह बात ‘लक्ष्मीजी’
को पता चली तो उन्होंने नारद जी को बुलाया और इस समस्या का समाधान पूछा तो नारद जी ने उन्हें उपाय बताया की आप राजा ‘बलि’
को राखी बाँध कर उन्हें अपना भाई बना ले और उपहार में अपने पति भगवन विष्णु को
मांग ले तब लक्ष्मी जी ने ऐसा ही किया उन्होंने राजा ‘बलि’ को राखी बाँध कर अपना
भाई बनाया और जब राजा बलि ने उनसे उपहार मांगने को कहाँ तो उन्होंने अपने पति
विष्णु को उपहार में मांग लिया जिस दिन लक्ष्मी जी ने राजा बलि को राखी बाँधी उस
दिन श्रावण पूर्णिमा थी तो कहते है की उस दिन से ही ‘राखी’ का तयौहार मनाया जाने
लगा ।
आज मानव जीवन के रक्षक उसी
महोत्सव के शुभ अवसर पर सभी मित्र जनों को अशेष शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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२९ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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