शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

सुर-३४५ : "जीवंत चरित्रों की भरमार... दे गये 'दिलीप कुमार'...!!!"

१९४४ में
आया ‘ज्वारभाटा’
जिससे निकला
चमचमाता ‘कोहिनूर’
उसका अलहदा ‘अंदाज़’
उसकी वो ‘आन’
जो उसे मिली ‘विधाता’ से
उसने लगाया फिल्मों का ‘मेला’
लोग आते करने उसका ‘दीदार’
कभी वो ‘जुगनू’ बन झिलमिलाता तो
कभी ‘देवदास’ की तरह
सबके दिलों पर छा जाता
तो कभी ‘राम और श्याम’ बन छलता
लेकिन कभी ‘शिकस्त’ न पाई
सिने ‘दुनिया’ में ‘नया दौर’ लाया
बिना ‘शक्ति’ अपना ‘किला’ बनाया
उसकी ‘इंसानियत’ का ‘पैगाम’
‘मुगले आज़म’ ने भी गुनगुनाया
वो ‘दास्तान’ कोई अब भी भूला न पाया
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मित्रों...,

अब तो ‘हिंदी सिनेमा’ सौ साल का हो भी गया जिसे यदि किसी एक पैमाने से आँका जाये तो बिला शक उसका नाम ‘दिलीप कुमार’ ही होगा और इसे यूँ पढ़ा जायेगा ‘दिलीप कुमार’ से पूर्व एवं ‘दिलीप कुमार’ के पश्चात् कि उन्होंने ‘अभिनय’ को न सिर्फ एक नया मुकाम दिया बल्कि तरह-तरह के चरित्रों के माध्यम से इस फ़िल्मी दुनिया को अनमोल विरासत भी सौंपी जिससे कि इस क्षेत्र में आने वाली नई पीढ़ी जान सके कि उसने अपनी जिंदगी के लिये जिस सिने जगत में कदम रखा वहां कोई पहले ही अपनी अप्रतिम अद्भुत फनकारी से ‘बेताज बादशाह’ के ख़ाली सिंहासन पर अपना हक़ जमा चुका हैं किसी ‘सूरज’ की मानिंद सिनेआकाश के मध्य में जगमगा रहा हैं और अब कोई कितना भी प्रयास करें या कितनी भी फिल्मों में कितने भी तरह की भूमिकायें अदा करें एक नक्षत्र सम बन उस विशाल जगमगाते सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर ही लगा सकेगा कि ‘बादशाह’ हो या ‘सूरज’ सिर्फ एक ही होता हैं और वो सिवाय ‘दिलीप कुमार’ के और कोई बन नहीं सकता तो आज भी इस जगत में अदाकारी करने वाले सभी अदाकार इसी ‘पावर हाउस’ से ऊर्जा प्राप्त करते हैं और सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात तो ये कि अभी आने वाले सभी कलाकार जो अभिनय की इस झिलमिलाती आकर्षित करती दुनिया में आते वो सभी इसके लिये बकायदा किसी बेहतरीन कला संस्थान में प्रशिक्षण लेते हर तरह की कला में पारंगत होते तब जाकर यहाँ कदम रखते तब भी सफलता की कोई गारंटी नहीं जबकि ‘दिलीप कुमार’ तो उस समय इस जगत में आये जब अपने ही दम पर अपनी शख्सियत बनाई जाती थी कोई ‘गॉडफ़ादर’ या विरासत में मिली गद्दी हासिल नहीं होती थी अपने लिये अपना नाम, अपनी जगह खुद ही बनानी पडती थी यहाँ तक कि अपने परिजनों के विरोध का भी सामना करना पड़ता था कि उस दौर में तो इस काम को भी इतनी सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता था तो अपने मन की बात को अपने घरवालों को बताना तक मुश्किल होता था जबकि आज तो पालक स्वयं ही अपने बच्चों को लेकर मुंबई जाते तरह-तरह के ऑडिशन में हिस्सा दिलवाते मतलब कि आज तो मंच भी आसानी से मुहैया हो रहे पर, उस वक़्त तो बड़े धक्के खाने पड़ते और यदि आप में काबिलियत नहीं तो फिर तो किसी अच्छे अवसर की बात भूल ही जाइये और आज तो किसी ‘स्टार चाइल्ड’ को बड़ी आसानी से पहला मौका मिल जाता फिर भले ही आगे वो अपनी प्रतिभा से ही बढ़ता लेकिन तब तो आपको अभिनय के साथ-साथ कई अन्य विधाओं में भी दक्ष होना पड़ता था कि पार्श्व गायन भी बाद में ही संभव हो सका जबकि आज तो तकनीक ने सब कुछ संभव कर दिया सारी कमियों को छूपाना भी कोई बड़ा मसला न रहा पर, जो उस दौर के हर कलाकारों ने किया वो अविस्मरणीय और मील का पत्थर इसलिये माना जाता कि उनको कुछ भी पका-पकाया या बना-बनाया नहीं मिला सब कुछ उन्होंने खुद अपने हाथो से निर्मित किया था

आज ही के दिन ११ दिसंबर, १९२२ ‘पेशावर’ शहर जो कि अब ‘पाकिस्तान’ का हिस्सा हैं में एक साधारण परिवार में 'मोहम्मद युसूफ़ ख़ान’ का जन्म हुआ जहाँ उनके पिता ‘लाला ग़ुलाम सरवर’ की फलों की दूकान थी जिससे वो अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे पर, विभाजन के कारण उनको अपना जन्मस्थान छोड़ना पड़ा तो वे सपनों की नगरी ‘मुंबई’ आ गये जहाँ उनकी किस्मत ने उनका शानदार भविष्य लिख रखा था तो भले ही उनके पिता को अपना व्यापार जमाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा पर, कहते हैं कि यहीं उस जमाने की बड़ी अभिनेत्री ही नहीं बल्कि फिल्म कंपनी की मालकिन ‘देविका रानी’ ने उनको देखा और उनके अंदर के हुनर को एक ही नजर में पहचान लिया तथा उनको एक नया नाम ‘दिलीप कुमार’ भी दिया तो फिर १९४४ में प्रदर्शित होने वाली ज्वार भाटाउनकी पहली फिल्म बनी जो उतनी सफल तो नहीं हुई पर, १९४७ में आने वाली ‘जुगनू’ ने उनको ‘सितारा’ बना दिया तो फिर तो एक के बाद एक लगातार हिट / सुपरहिट फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया जिन्होंने उनको न सिर्फ पूरी तरह से स्थापित कर दिया बल्कि उनके अभिनय के नये अंदाज़ ने जिसे कि ‘मेथड स्कूल’ का नाम दिया गया ने उनको ‘ट्रेजडी किंग’ की उपाधि प्रदान की जब ‘अंदाज़’, ‘दीदार’, ‘शहीद’, ‘मेला’, ‘बाबुल’, ‘जोगन’, ‘आरजू’, ‘तराना’, ‘अमर’, ‘उड़ान खटोला’, ‘इंसानियत’, ‘देवदास’ जैसी अलग-अलग हृदयस्पर्शी भूमिकाओं से सजी फ़िल्में लगातार आती गयी तब लोगों को पता चला कि अभिनय ऐसे भी होता हैं कि जो भी चोला ओढो बस, वही बन जाओ किसी को ये न लगे कि जिसे वो देख रहा वो कोई काल्पनिक पात्र हैं बल्कि लगे कि वो तो सिर्फ और सिर्फ वही हैं तो ऐसा करते थे ‘दिलीप कुमार’ कि जब भी उनको कोई रोल मिलता तो कई दिनों पूर्व से उसकी तैयारी में जुट जाते बड़ी बारीकी से उसका अध्ययन करते उसे अपने अंदर उतार लेते फिर कहीं जाकर केमरे के सामने उस हूबहू पेश कर देते तो देखने वाला भी दंग रह जाता तभी तो आज भी ‘देवदास’ का नाम लो या ‘मुग़ल राजकुमार जहाँगीर’ का जेहन में उनकी ही छवि दिखाई देती कि इस तरह से उनको जीवित कर दिया उन्होंने आज भी इस क्षेत्र में आने वाले सभी नये और पुराने अभिनेता उनको देखकर ही अभिनय करना सीखते कि वे तो जीते-जी ही अभिनय की पाठशाला बन गये और कोई भी ऐसा नहीं जिसने अपने जीवन में एक बार भी उनकी फिल्मों का अवलोकन न किया हो जो आज भी फिल्म समारोहों में दिखाई जाती तो हर अभिनय संस्थान में भी नवागत अभिनेताओं को पढ़ाई जाती जिनसे सभी अभिनय का ककहरा सीखते और अब जबकि वो इतने समय से फिल्मों में काम भी नहीं कर रहे तब भी उनके सिंहासन से कोई उनको हिला तक नहीं पाया और न ही कभी कोई उस स्थान तक पहुंच भी पायेगा कि कोई भूले से एकाध फिल्म अच्छी कर भी ले लेकिन इतने सारे चरित्र, इतने सारे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के अवार्ड अपने नाम कर पाना मुश्किल होगा भले कोई उससे भी बड़ा पुरस्कार जीत ले पर, उनकी जगह सदा उनकी ही रहेगी । 

जज्बात से भरी संवेदनशील भूमिकाओं को निभाते-निभाते जब वे स्वयं ही उसी एक रंग में रंग गये तब फिर उन्होंने अपने अभिनय का एक और अंदाज़ सबके सामने प्रस्तुत किया जिसमें हास्य रस का समावेश था लेकिन इसमें भी उन्होंने हर किसी को अपना मुरीद बना लिया ‘कोहिनूर’, ‘राम और श्याम’, ‘गोपी’, ‘बैराग’, ‘लीडर’, ‘सगीना महतो’, ‘गंगा जमना’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘आदमी’, ‘मधुमती, ‘नया दौर’ आदि ने उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को दर्शकों के सामने परोसा तो लोगों ने उनको भी उतने ही प्यार से अपनाया और जब उनको लगा कि अब वे नायक के किरदार में फिट नहीं बैठते तो उन्होंने चरित्र भूमिकाओ की और रुख किया और इस तरह ‘क्रांति’, ‘विधाता’, ‘कानून अपना अपना’, ‘धर्माधिकारी’, ‘शक्ति’, ‘दुनिया’, ‘मजदूर’, ‘मशाल’, ‘कर्मा’, ‘इज्जतदार’, ‘सौदागर’ के रूप में हमें उनका परिपक्व स्वरूप देखने को मिला फिर ११९८ को आई ‘किला’ के बाद उन्होंने इस जगत से किनारा कर अपने घर में रहकर अतीत के संग जीने का फ़ैसला किया और आज भी बीते दिनों की जुगाली कर अपने दिन बिता रहे कि उनके पास याद करने के लिये भी अनगिनत बातों का खज़ाना हैं जिनके साथ रह कभी अकेलापन महसूस नहीं होता... हम प्रशसंक भी तो उनको कभी भूलते नहीं तो आज उनके ९३वे जन्मदिवस पर उनको अनंत जीवन की शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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११ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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