बुधवार, 16 दिसंबर 2015

सुर-३५० : "बनी रहे याद... तो न करनी पड़ती फरियाद...!!!"

कहीं भी जाओ
या करो कुछ भी
हरदम, हरपल
दिल में बना रहे ख्याल
प्रियतम का तो
फिर न रहता मलाल
उसकी दूरी का
कि अंतर में होता
सदैव उसका दीदार
जो दिलाता अहसास
नजदीकी का
मगर, जो परिचित नहीं
आत्मिक मिलन से
वो करते रहते शिकवा
जबकि, चंद ढूंढ लेते
अपने उस दर्द में ही दवा
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मित्रों...,

बहुत मुश्किल होता हैं किसी अपने सबसे ज्यादा ‘प्रिय’ की जुदाई में अकेले रहना कि किसी काम में मन नहीं लगता न ही कुछ भी अच्छा लगता बस, हरदम जी यही चाहता कि काश, पंख होते तो उड़कर वहीँ चले जाते जहाँ उनका ठिकाना हैं पर, अपनी सोच को न बदलते कि यदि जाने वाला किसी ख़ास वजह से हमें छोड़कर गया तो हम उसके ध्येय के पथ पर उसके सच्चे साथी बन उसको ऊर्जा देने का काम करें जिससे कि वहीँ जो हमसे दूर हैं हमारे दर्द से विचलित हुये बिना बेफिक्र होकर अपना काम कर सके लेकिन अधिकांशतः तो इस अकेलेपन को सहन न कर पाते और पल-पल उसको तरह-तरह से अपनी याद दिलाते रहते ये सोचे-विचारे बिना कि हो सकता वो उस वक़्त किसी जरूरी कार्य में मशगूल हो या हमारे बेवक्त उनको कॉल करने से उनकी मनोस्थिति जिसका हमें इतनी दूर से न तो अंदाज़ा हैं न ही अहसास वो अव्यवस्थित हो जाये तो इस तरह से जहाँ हमें उस अपने को इन फ़ासलों को नज़रअंदाज़ करते हुये प्रेरणा की तरंगे भेजना हैं वहां हम उसके काम में बाधा डालते रहते उसको नकारात्मक ऊर्जा प्रेषित करते जिसकी वजह से उसका अपने लक्ष्य, अपने काम और अपने माहौल में मन नहीं लगता या कई बार तो यूँ भी होता कि हम अनजाने में उस परदेसी को कुछ ऐसा कह जाते या अपनी कड़वी बातों से कोई ऐसी तरंग उसके मस्तिष्क में प्रवाहित कर देते कि वो कोई अनुचित कदम उठा लेता तो ये समय जो कि संयम से रहने का हैं हम अपने अमर्यादित व्यवहार से उसे अपने साथ-साथ सबके लिये किसी सजा में तब्दील कर देते जबकि बड़ी आसानी से स्वयं को एवं अपने साथ रहने वालों के अलावा अपने प्रियजन का भी ख्याल रखा सकते हैं जिससे कि जो पल मीठी ‘याद’ बन सकते हैं वो कटू ‘फरियाद’ बन ताउम्र सालते रहे क्योंकि ये समझ भी तो बड़ी देर में आती जब तक कि हाथ से मछली की तरह वो परीक्षा की घड़ियाँ फिसल जाती जिसे हम अपनी ही आँखों के सामने तड़फ-तड़फ कर मरते देखते पर, कुछ कर नहीं पाते कि हमने ही तो उसे हथेली में रख देखने की जिद की थी लेकिन जो संभव नहीं उसके उसके प्रति ये कामना सिवाय अपने आपको कष्ट देने के और कुछ नहीं फिर भी कई लोग न सिर्फ ऐसा करते बल्कि अब भी कर रहे होंगे तो उनको एक बार तो जरुर ये विचार करना चाहिये कि वे ‘उचित’ / ‘अनुचित’ के साथ ही ‘जुदाई’ / ‘मिलन’ के बीच वास्तविक मायनों में फ़र्क भी समझ सके जिसकी बारीक़ रेखा दिखाई भले ही न देती हो पर, एक दिन ये दोनों के दरम्यां अभेद्य दीवार पैदा कर देती हैं आश्चर्य की बात कि हम फिर ‘तकदीर’ या ‘किस्मत’ या किसी और के माथे ठीकरा फोड़ अपने आपको इस अंजाम के दोषी मानने से मुक्त कर लेते लेकिन इसकी सजा तो सबको भुगतनी पडती

कुछ ऐसा ही हुआ जब ‘अनिकेत’ और ‘रमोला’ की शादी हुई तो अचानक कंपनी के काम से ‘अनिकेत’ को बाहर जाने का आदेश मिला जिसे टाल पाना उसके वश में नहीं था अतः उसे अपनी नई-नवेली दुल्हन को समझा-बुझाकर पूरे परिवार सहित अपना और उसका ध्यान रखने की हिदायत दे वो चला गया पर, ‘रमोला’ को तो एक पल चैन नहीं वो न तो दिन देखती न ही रात न ही एक बार ही ये सोचती कि इस वक्त वो कहीं व्यस्त तो नहीं या उनको कोई समस्या तो नहीं या उनका मूड डिस्टर्ब तो नहीं बस, तुरंत मोबाइल की बटनें दबा ये अपेक्षा करती कि जिस तरह वो चाहती सामने वाला उससे पेश आये या वो जो भी सुनना चाहती वही वो दोहराए पर हमेशा तो ये संभव नहीं तो एक दिन यूँ भी हुआ कि ‘अनिकेत’ किसी जरूरी मीटिंग में था तो फोन रिसीव नहीं कर पाया फिर अपना ‘प्रेजेंटेशन’ देने उसे उसी दिन दूसरे शहर निकलना पड़ा तो उसे अपने मोबाइल को साइलेंट पर रखना पड़ा पर, दूसरी तरफ इस बात से नावाकिफ़ ‘रमोला’ अपनी ही सोच से बिफर गयी तो जब अगले दिन भी उसका कॉल न आया तो उसने भी न करने की ठानी कि जब तक उसका फोन नहीं आयेगा वो भी उसे नहीं करेगी इस तरह एक सप्ताह गुज़र गये तो उसने खुद होकर फोन किया तो ये पूछे बिना कि ऐसा क्यों हुआ न जाने क्या-क्या बातें सुना दी जबकि ‘अनिकेत’ तो अस्पताल में भर्ती था लेकिन वो अपनी हालत बता भी न सका कि उसका एक्सीडेंट हो गया था और आज ही होश में आया तो उससे बात कर सका कि ‘रमोला’ तो गुस्से में भरी बंदूक की तरह गोलियों की तरह बातें दागती रही जिसका परिणाम ये हुआ कि ‘अनिकेत’ जो पहले ही कमजोर था उसकी जली-कटी बातों का सदमा झेल न पाया और उसे ‘हार्ट-अटेक’ आ गया और जब ‘रमोला’ तक ये खबर पहुंची बहुत देर हो चुकी थी अगर, वो चाहती तो धैर्य रख उसके बारे में भी सोचती उसकी जगह खुद को रख देखने की कोशिश करती पर, आज के समय जहाँ सब खुदगर्ज़ सिवाय अपने कोई नजर नहीं आता तो वो किस तरह से उसके विषय में सोच पाती तो ऐसा तो होना ही था क्या नहीं ???

यदि जुदाई के पलों को मानसिक याद करने का जरिया बना लिया जाये और हर काम में हर जगह उसका ख्याल रखा जाए तो फिर आत्मिक दर्शन से ही प्रिय की नजदीकी का अहसास होगा वरना एक कमरे में साथ रहकर भी दूरियां बनी रहेगी इसलिये तो कहते जहाँ होती ‘याद’... वहां नहीं होती कोई ‘फरियाद’... बस, समझ का फेर हैं... और कुछ नहीं... :) :) :) !!!           
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१६ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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