शनिवार, 12 दिसंबर 2015

सुर-३४६ : "राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त... कभी न सकते तुम्हें भूल...!!!"

न रहा...
कोई प्रसंग अछूता
हर पीड़ा को
भर कलम में जिया
शब्दों से अंतर के  
अहसासों को जीवंत किया
साहित्यसुधी जनों ने 
शब्द सुधा का मधुर जाम पिया
‘मैथिलीशरण गुप्त’ की  
ये अथक अनवरत साधना
जिसने ‘राष्ट्रकवि’ का दर्जा दिया  
भूल न सकेंगे सदियों तक
ऋणी रहेगी आने वाली कई पीढियां
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मित्रों...,

सौ साल से अधिक ही समय हुआ जब ०३ अगस्त १८८६ को भारतभूमि के चिरगाँव में जो कि  ‘झाँसी’, उत्तर प्रदेश में स्थित हैं में एक संपन्न वैश्य परिवार में ‘मैथिलीशरण गुप्त’ का जन्म हुआ  जिनके पिता 'सेठ रामचरण' भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त एवं एक कविहृदय भी थे जो ‘कनकलता’ के उपनाम से कवितायें लिखा करते थे तो माता 'श्रीमती काशीबाई' भी एक कुशल गृहिणी होने के साथ-साथ संस्कारवान महिला थी तो उनको बाल्यकाल से ही एक पवित्र पारिवारिक वातावरण मिला तथा उनमें अपने माता-पिता के सभी सद्गुणों का समावेश भी हुआ इसलिये वे भी छुटपन से ही काव्य सृजन करने लगे जिसे पढ़कर ही उनके पिता को आभास हो गया था कि उनका सुपुत्र एक दिन उनसे भी उत्तम साहित्य लेखन कर इसी क्षेत्र में अपना बड़ा नाम करेगा कि पूत के पांव पालने में ही जो दिखने लगे थे तो फिर अहसास किस तरह से न होता तो उनकी ये आंतरिक अनुभूति आने वाले समय में किसी भविष्यवाणी की तरह शब्दशः साकार हुई और जो आशीष उन्होंने अपने सपूत को दिया था कि वो अपनी कलम से श्रेष्ठतम सृजन करेगा वो भी पूरी तरह फलित हुआ कि इस काज हेतु उन्होंने बचपन से ही हर भाषा एवं उत्कृष्ट ग्रन्थों का अध्ययन किया और अपनी इस दैवीय प्रतिभा को निखारने के लिये उन्होंने उस दौर के सभी साहित्य साधकों से मिलना-जुलना भी शुरू किया जिसका समापन ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ से भेंट के पश्चात् हुआ जिसे उन्होंने अपना ‘साहित्य गुरु’ मान लिया और इस तरह उस पारसमणि के स्पर्श से उनकी कविता लेखन की शैली में न सिर्फ सुधार आया बल्कि उनकी समझाइश से उन्होंने लेखन के साथ-साथ ही देशसेवा का भी व्रत लिया और समाज की कुरीतियों को भी दूर करने का बीड़ा उठाया ताकि उनका लिखा सार्थक हो सके चूँकि एक कवि का मन संवेदनशील होता हैं अतः वो पराई पीड़ा को उतनी ही गहराई से महसूसता तभी तो उसकी कलम में वो अहसास जागृत होकर पढ़ने वाले के अंतर को भी उतनी ही शिद्दत से छूता तो उन्होंने भी उस वक़्त जो देश के हालात थे जिस तरह का माहौल था उसको काव्य में पिरो पन्नों पर उकेर दिया जिसमें समाज जागरण व उसके सुधार के प्रति लोकहित की भावना समाहित थी इसलिये तो इतना समय गुजर जाने के बाद भी वो अब तक उसी तरह प्रासंगिक हैं क्योंकि जब कोई भी कलमकार स्वदेश प्रेम की स्याही से देशराग लिखता तो फिर अनंत काल तक वो देश की माटी के कण-कण में गूंजता रहता फिर उन्होंने तो अपने वतन की पीड़ा को उसके साथ जिया था उस दौर के क्रांतिकारियों को अपना आदर्श मान हर किसी को अपने मातृभूमि से प्रेम करने हेतु जगाने का काज किया इस तरह की रचनायें लिखी कि शरीर में बहने वाला लहू उबाल मारने लगे उन्हीं के शब्दों में उनकी मनोभावना को समझ सकते हैं---

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

इसी कारण ‘महात्मा गाँधी’ ने स्वयं ही उनको ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से सम्मानित किया तो उनके चाहने वालों ने सदैव प्यार से उनको ‘दद्दा’ कह संबोधित किया

देशप्रेम के अलावा उन्होंने ईश्वर भक्ति और प्रकृति लीला को भी अपने काव्य का आधार बनाया इसके अतिरिक्त उनकी एक अन्य विशेषता कि उन्होंने अपनी सशक्त लेखनी से सभी उपेक्षित बोले तो पार्श्व में बैठी नायिकाओं को अपने काव्य का मुख्य पात्र बनाया जिन पर किसी का ध्यान तक नहीं गया चाहे फिर वो लक्ष्मण की पत्नी ‘उर्मिला’ की वनवास के दौरान होने वाली एकाकी वेदना हो जिसे उन्होंने इतनी गहरी अनुभूति से दर्शाया कि पढने वाले ने भी उस दर्द को अपने भीतर महसूस किया यहीं नहीं ‘कैकयी’ जिनको सब बड़ी उपेक्षा से देखते या उसके अनुताप को समझने का प्रयास नहीं करते उनके सामने उन्होंने उसके पश्चाताप को इतनी समझदारी से कागज़ पर उतारा कि हर आँख से आंसू निकल आया फिर उसी कलम से उन्होंने ‘राजकुमार सिद्धार्थ’ द्वारा सोती हुई ‘यशोधरा’ को अकेला छोड़कर जाने के बाद उत्पन्न हुई वेदना को भी आत्मा से महसूस कर इस तरह से कलम चलाई कि आज भी वो अक्षर ‘सखी से मुझसे कहकर जाते’ हर किसी के हृदय को बेधने में कामयाब होता यही तो एक कलमकार की जीत हैं कि वो जो कुछ भी लिखे उसमें खुद इस तरह से डूब जाये कि फिर उस ज्ञान गंगोत्री से काव्य की जो रसधारा प्रवाहित हो वो सामने वाले को भी अपने साथ कही दूर बहा कर ले जाये जहाँ पात्र शब्दों की बेड़ियाँ तोड़कर सभी पढ़ने वालों की नजरों के समक्ष ही उपस्थित हो जाये तो यही हुआ जब उनके रचित खंडकाव्य, महाकाव्य और संकलन लोगों के बीच आये तो फिर पढ़ने वाले भी अब तक उनको भूल नहीं पाये फिर चाहे वो ‘जयद्रथ वध’ हो या ‘भारत भारती’ या फिर ‘शकुंतला’ या ‘तिलोत्तमा’, ‘चंद्रहास’, ‘पत्रावली’, ‘वैतालिका’, ‘पंचवटी’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘कुणालगीत’, ‘जयभारत’ या ‘विष्णुप्रिया’ आदि सभी ने हिंदी साहित्य के खज़ाने को समृद्ध किया तो आज उनकी पुण्यतिथि पर देकर ये शब्दांजलि करते मन से नमन उनको... :) :) :) !!!
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१२ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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