मुड़-मुड़ के देख
कि ऐसी अभिनेत्री
फिर न आई रजत पर्दे पर
जिसकी बेबाक अदाकारी
मंत्रमुग्ध कर लेती
बांध लेती अपनी निर्भीक
लाजवाब अदाओं में
जिसने एक जमाने को
दीवाना बना दिया
कि आज फिर हमने उस
फियरलेस ‘नादिरा’ को याद किया ॥
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मित्रों...,
१९५२ में भारतीय सिने जगत
के इतिहास में एक सुनहरे अध्याय लिखा गया जब हिंदी फिल्मों के सरताज फ़िल्मकार ‘महबूब खान’ निर्देशित देश की पहली
रंगीन फिल्म ‘आन’ प्रदर्शित हुई जिसमें उस सदी के महानायक और अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ के
सामने बिगडैल राजकुमारी 'राजश्री' का किरदार अदा करने के
लिये एक नूतन अभिनेत्री का चयन किया गया जिसे महबूब खान ने एक विवाह समारोह के
दौरान केवल एक नज़र देखा था लेकिन उतने में ही उस जौहरी ने उस हीरे की परख कर ली थी
तो अपने ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ जिसे
उन्होंने उस दौर में ही न सिर्फ ‘कलरफुल’ बनाने का निश्चित किया बल्कि इसे व्यावसायिक तौर पर विदेशों
में भी भी प्रदर्शित करने की बड़ी योजना भी बनाई साथ ही इसे एक साथ तीन अलग-अलग
भाषाओँ हिंदी, तमिल एवं अंग्रेजी में बनाने का जोखिम भी लिया तो इस तरह यह
एक ऐतिहासिक फिल्म साबित हुई जिसने अलग-अलग श्रेणियों में कीर्तिमान स्थापित किये
जबकि हम समझते कि इस तरह के प्रयोग आज ही किये जाते लेकिन हमारे यहाँ इस तरह के
प्रतिभाशाली एवं स्वपनदर्शी सृजनकर्ता हुये जिन्होंने न केवल हर तरह के प्रयोग
किये बल्कि उसके लिये हर तरह की मुश्किलों का सामना करने भी तैयर हुये यही वज़ह कि
वे फ़िल्में जो कम संसधानों, कम लागत एवं कम से कम सुविधाओं पर, अधिक से अधिक कठिनाइयों से निर्मित हुई सबने उल्लेखनीय
सफ़लता के साथ अपनी ऐसी पहचान बनाई कि आज भी हम उनको याद करते तो जिस फिल्म का
जिक्र कर रहे ‘आन’ उसके निर्देशक, बेनर, कास्ट, संगीत सब कुछ आला दर्जे का
था तो फिर लोगों को उसको देखने का इंतज़ार भी बहुत था तो जब वो रुपहले पर्दे पर आई
तो उसके सतरंगी जादुई मायावी काल्पनिक संसार ने सबको अपने आकर्षण से बांध लिया उस
पर फिल्म की बिंदास नायिका ‘फ़रहत एज़ेकेल नादिरा’ जिसे हम अब केवल ‘नादिरा’ के नाम से जानते के शाही सौंदर्य तीखे-तीखे से तेवरों ने भी
उसकी जोरदार सफलता में इज़ाफा किया कि वो लड़की जिसे पूर्व में किसी तरह के अभिनय का
कोई अनुभव न था वो अभिनय के बादशाह ‘दिलीप
कुमार’ के समक्ष किसी भी तरह से कमज़ोर नज़र न आई बल्कि उसका
प्रभावशाली व्यक्तित्व तो अपने नायक की आँखों में आँखें डालकर बात करता नज़र आया तो
फिर उसे कोई किस तरह से नज़रअंदाज़ करता तो रातों-रात उनको लोकप्रियता का आसमान
हासिल हो गया ।
कभी उसने खुद भी सपने में
न इस बारे में सोचा था कि ५ दिसम्बर, १९३२ को
उनका जन्म इज़राइल में एक साधारण यहूदी परिवार में हुआ जहाँ उनकी माँ इराकी व पिता
मिस्त्र के थे कहते हैं बचपन से ही उनका पालन-पोषण लड़कों की तरह किया गया अतः वे
लड़कों के साथ मिलकर फुटबाल व गिल्ली डंडा खेलती और उन्ही की तरह दिन-रात हुल्लड़
मचाती शायद यही से उनके अंदर एक निर्भीकता आ गयी और व्यवहार में भी एक रौबीलापन जो
सामने वाले को प्रभावित कर जाता और उन्होंने आगे चलाकर भूमिकायें भी हर तरह की
निभाई जिसमें अधिकांशतः खलनायिका की थी लेकिन उस तरह की दुष्ट नहीं जो हथियारों से
किसी की जान लेती बल्कि उसकी अदायें ही क़ातिल थी उनकी शख्सियत में ही वो शाहाना
रवैया था कि फिर उनके सामने फिल्म का ‘नायक’ हो या ‘नायिका’ वो कम न नज़र आती बल्कि अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती
इसलिये तो जब १९५६ में हिंदी सिने जगत के 'सपनों
के सौदागर' कहे जाने वाले 'राज-कपूर' की ‘श्री ४२०’ आई जिसमें कि उन्होंने एक
शातिर चालाक अमीरजादी ‘माया’ का किरदार निभाया जो
भोले-भाले अभिनेता को अपने जाल में फंसाकर इस्तेमाल करती हैं और इसमें वे जब-जब
पर्दे पर आती उनका हर एक दृश्य हर संवाद सबको मंत्रमुग्ध कर देता फिर जब वो लहराकर
गाती ‘मुड़ मुड़ के न देख... मुड़ मुड़ के...” तो हर कोई उसे मुड़-मुड़ के देखता ही रह जाता कि इससे पहले
उसने ऐसे जलवे ऐसी अदाकारी देखी ही नहीं थी जिससे बच पाना मुश्किल नहीं था तो आज
भी लोग उसे मुड़-मुड़ के ही देखते उसके बाद ‘दिल
अपना और प्रीत पराई’ में उनकी नकारात्मक भूमिका भला किसे याद न होगी जिसने ‘राजकुमार’ जैसे अदाकार और ‘ट्रेजेडी’ क्वीन कही जाने ‘मीना कुमारी’ तक के
सामने अपने अभिनय और अलहदा अंदाज़ के वो रंग बिखेरें कि उनके बिना उस फिल्म की
कल्पना करना नामुमकिन लगता इस तरह जब उस दौर में सभी नायिकायें पतिव्रता चरित्रों
को निभा रही थी ‘नादिरा’ ने खल चरित्रों से अपना एक
अलग मुकाम बनाया जो आज भी अपनी जगह उसी तरह कायम हैं ।
केवल नायिका , खलनायिका या सह-नायिका ही नहीं बल्कि बाद में उन्होंने उतनी
ही ठसक से चरित्र भूमिकायें भी अभिनीत की जरा याद करें कालजयी ‘पाकीज़ा’ में उनके द्वारा निभाई गयी
‘मैडम गैहर जान’ की
जोशीली अदाकारी और ‘सागर’ की ‘मिस जोसेफ’ को जिसका ममतामयी स्नेहिल
पात्र मानो प्रेम का बहता सागर नज़र आता तो ‘जूली’ फिल्म में जूली की माँ ‘मार्गरेट’ का यादगार रोल जिसके लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहनायिका का
फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला और ये एक ऐसी फिल्म हैं जो अपने समय से आगे की कहलाई
जाती क्योंकि उसका विषय उस वक़्त के हिसाब से बेहद आधुनिक था याने की हर तरह के
किरदार को वे इस तरह से आत्मसात कर लेती कि फिर ‘नादिरा’ सिर्फ़ वही नज़र आती कि उसके खोल में यूँ उतर जाती थी उनकी
अंतिम फिल्म सन २००० में ‘शाहरुख़’ व ‘ऐश्वर्या’ अभिनीत ‘जोश’ थी उसके बाद वे लगभग एकांतवास में रहने लगी और ९ फ़रवरी, २००६ को इस दुनिया से चली गयी पर इस दौरान उन्होंने लगभग ६०
से अधिक फिल्मों में काम किया जो हिंदी सिनेमा की धरोहर हैं और हमें उनकी सदैव याद
दिलाती रहेगी कि ‘माया’ की माया सदियों तक अपने
मायाजाल में लोगों को फंसाती रहेगी तो आज उनके जन्मदिवस के अवसर पर, उस महान गौरवमयी अदाकारा को ये शब्दांजलि... :) :) :)
!!!
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०५ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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