मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

सुर-३४२ : "मेरे हमदम मेरे दोस्त... धर्मेंद्र-शर्मिला टैगोर...!!!"


‘यकीन’
करो न करो
मगर, ‘चुपके-चुपके’
उन दोनों ने
कभी ‘देवर’ तो
कभी ‘सत्यकाम’ और
कभी ‘अनुपमा’ के
पात्र में ढलकर
‘एक महल हो सपनों का’
हकीकत में बनाया
‘सन्नी’ के बाद भले ही
‘धर्मेंद्र-शर्मिला टैगोर’
ये जोड़ा फिर साथ न आया
पर, ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’ का
अटूट रिश्ता सदा निभाया   
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मित्रों...,


८ दिसंबर, १९३५’
--------------------- मतलब आज से पुरे अस्सी साल पहले पंजाब की धरती पर ‘साहनेवाल’ गाँव में  ‘केवल किशन सिंह देओल’ के ख़ालिस पारंपरिक और जमीन से जुड़े पंजाबी जाट परिवार में ‘धर्मेन्द्र सिंह देओल’ का जनम हुआ जिनका पूरा बचपन शुद्ध देसी वातावरण में अपने गाँव की माटी की सोंधी खुशबू के मध्य व्यतीत हुआ जिन्होंने अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ की फ़िल्में देखकर उनकी ही तरह रजत पर्दे पर आने का एक छोटा-सा सपना देखना शुरू कर दिया जिसका उन्हें इल्म नहीं था कि ये कब, किस तरह से पूरा होगा क्योंकि उस वक़्त आज की तरह का खुला वातावरण या आधुनिक सोच तो नहीं थी लोगों की पर, उनके दिल में इस दुनिया में आने का विचार इस कदर समा गया था कि सोते-जागते मन में इसके सिवा कोई और ख्याल आता ही नहीं था या कहे कि उनका जन्म ही हिंदी सिनेमा के बड़े परदे अपने अंदर की प्रतिभा को खुलकर दिखाने के लिये ही हुआ था तो फिर जैसा कि कहते हैं – ‘जहाँ चाह, वहां राह’ तो कुछ ऐसा ही चमत्कार उनके साथ हुआ जब अचानक ही १९५८ में उन्होंने किसी पत्रिका में ‘फ़िल्म फेयर टैलेन्ट कॉन्टेस्ट’ का विज्ञापन देखा और आनन-फ़ानन में बिना उसका परिणाम सोचे उसे भर दिया गोया कि जेहन के किसी कोने में ये भी ख्याल आया कि शायद, उनके लिये ही भगवान ने ये अवसर जुटाया हैं तो चूकना तो हर्गिज नहीं हैं ये सोच वो अपनी ही तरह से उसकी तैयारी करने लगे जब वो समय आया तो ‘मुंबई’ जाकर उसमें हिस्सा लिया और उनकी कसरती देहाकृति, प्राकृतिक आबो-हवा में पला खिला हुआ चमकता चेहरा, आकर्षक व्यक्तित्व, प्रभावशाली आवाज़ सबने मिलाकर उनकी प्रस्तुति को शानदार बना दिया तो बस, उनका न सिर्फ उस प्रतियोगिता में चयन हुआ बल्कि उन्हें अपनी पहली फ़िल्म 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' का ऑफर भी मिल गया और इस तरह उनका सपनों की इस ग्लेमर भरी दुनिया में पदार्पण हुआ लेकिन, सफ़लता मिली १९६६ में ‘ट्रेजेडी क्वीन’ कहलाने वाली ‘मीना कुमारी’ के साथ प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘फूल और पत्थर’ से उन्होंने सफलता के साथ ही अपने चाहने वालों से अपने लिये ‘ही-मेन’ के तमगे के साथ ही उस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार  भी हासिल किया तो फिर तो जो सिलसिला शुरू हुआ तो साल दर साल एक के बाद एक अनगिनत हिट/सुपरहिट फिल्मों की मानो झड़ी ही लग गयी जिसने उनको ‘सुपर सितारे’ की हैसियत दिलायी और आज भी नई पीढ़ी उनको और उनके परिवार को न सिर्फ़ जानती व पहचानती हैं बल्कि इस जगत को दिया गया अमूल्य योगदान भी मानती हैं कि उन्होंने एक लोकप्रिय अभिनेता, सफल फिल्म निर्माता और कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया हैं ।

८ दिसंबर १९४६,
--------------------- आज से लगभग सत्तर साल पहले हैदराबाद में एक हिंदू बंगाली परिवार में ‘शर्मीला टैगोर’ का जनम हुआ उस समय उनके पिता ‘गितेन्द्रनाथ टैगोर’ एल्गिन मिल्स की ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के मालिक, उप-महाप्रबंधक थे अतः उनको बचपन से ही किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा और उन्होंने तो कभी सोचा भी न था कि उनको फिल्मों में आना हैं लेकिन उनकी तो तकदीर में ही सपनों की नगरी की सम्राज्ञी बनना लिखा था तो ‘रविंद्रनाथ टैगोर’ की छत्रछाया में ‘शांति निकेतन’ जैसी उत्कृष्ट संस्था में विद्याध्ययन करते हुये तेरह साल की नाज़ुक वय में उस दौर के महान व अपनी ही तरह के कला पारखी ‘सत्यजित राय’ ने उनको देखते ही पहचान लिया और अपनी फ़िल्म 'अपूर संसार' में काम करने का वो अवसर दिया जिसने उनके लिये फ़िल्मी दुनिया के द्वार खोल  दिये और सिने जगत ने खुले दिल से उसका स्वागत किया कि उनकी खिले गुलाब जैसी ताजगी और गालों में गहरे पड़ने वाले डिम्पलों ने सबका मन मोह लिया उस पर दिल को छूने वाला अभिनय मानो सोने पर सुहागा साबित हुआ तो उनके संवेदनशील अभिनय ने हर किसी को अपना मुरीद बना लिया जिसके कारव वे सिर्फ अपने देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गईं तो एक के बाद एक शानदार निर्देशकों के अलावा एक से बढ़कर एक अलहदा कहानियों ने उनको अपना हिस्सा बनाया जिससे बांग्ला फिल्मों के साथ ही उन्हें हिंदी फिल्मों में भी आने का भी मौका मिल गया जब बांग्ला फ़िल्मकार ‘शक्ति सामंत’ ने १९६५ में 'कश्मीर की कली' में उस सौम्य शालीन छवि को जंगली जानवर छवि वाले ‘शम्मी कपूर’ के साथ पेश किया चूँकि वे तो जन्मी ही थी अपनी अदाकारी से हम सबका मन बहलाने तो उस वक्त के सभी नामचीन निर्माता-निर्देशकों ने उनको अपनी फिल्मों में अलग-अलग किरदारों में प्रस्तुत किया और देखने वालों ने उनके हर रूप, हर एक अदा, हर नाजों-अंदाज़ को बेहद पसंद किया तभी तो वे चाहे माथे पर लाल बिंदी लगाये चौड़े पाट की साड़ी पहने सुहागन का पात्र निभाये या फिर एकदम आधुनिक परिधान में ग्लेमरस रोल करें या फिर बालों में सफेदी लगा किसी अधेढ़ माँ के चरित्र में ढल जाये लोगों ने उनको हृदय से अपनाया आज भी उनकी अधिकतम फ़िल्में एवं उनकी निभाये गये किरदार हम सबकी आँखों में बसे हैं क्योंकि अभिनय कला अपने कलाकारों को सदैव उसी रूप में सुरक्षित रहती  हैं जिसे भी वो एक बार जिस तरह भी अभिनीत कर देते हैं तो फिर ‘शर्मिला टैगोर’ भी अपने सभी काल्पनिक और हकीकी पात्रों के साथ आज भी उसी तरह से हमारे जेहन में विद्यमान हैं जिसे कभी भी कोई भी न तो भूल सकता हैं न ही नकार सकता हैं ।

ये दो अद्भुत अपने ही मिज़ाज के जुदा कलाकार ‘धर्मेंद्र’ और ‘शर्मिला टैगोर’ जो भले ही अलग-अलग जगहों में अलग-अलग समय अंतराल में पैदा हुये पर, देश और जमीन तो एक ही थी और किस्मत की इबारत में भी कर्मक्षेत्र एक ही लिखा था तो दोनों मिले और ऐसे मिले कि उन्होंने साथ मिलकर  हिंदी सिनेमा के सौ साल के इतिहास में अपने लिये एक अलग अध्याय लिखा डाला जब उन दोनों में साथ में ‘अनुपमा’, देवर’, ‘सत्यकाम’, ‘चुपके-चुपके’, ‘एक महल हो सपनों का’, यकीन, ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’ और ‘सन्नी’ जैसी फिल्मों में काम किया यहाँ तक गुलज़ार साहब तो उनको लेकर फिर से अपनी ही तरह की अपने नजरिये से ‘देवदास’ भी बनाना चाहते थे जो ख्वाब ही रह गया लेकिन जो भी हमको मिला वो कम नहीं तो आज इन दोनों अनूठे फनकारों को उनके जन्मदिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनायें... कि वो सदियों तक यूँ ही अपना ये ख़ास दिन मनाये... :) :) :) !!!
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०८ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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