गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

सुर-३५१ : काव्यकथा : ‘इक सच ये भी...!!!'


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मित्रों...,


‘स्वर्णा’ ने तमाम कोशिशें की लेकिन फिर भी वो अपने पति का दिल जीत न सकी जबकि न तो उसमें कोई कमी थी और न ही उसके प्यार में पर, जब उसके पति का दिल ही किसी दूसरे पर आ गया था तो फिर उसमें ‘स्वर्णा’ के लिये जगह बनने की कोई गुंजाईश बाकी ही नहीं थी... पर, उसे लाख समझाने के बावजूद भी वो मानती ही नहीं थी तो आख़िरकार उसकी सहेली ‘दिव्या’ को ही ये मानना पड़ा कि---

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सच हैं...
कोशिश करने वालों की
हार नहीं होती
और करें कोई कोशिश तो
चाँद भी दूर नहीं
तभी तो पहुँच ही गया
इंसान अंतरिक्ष तक भी
लेकिन अक्सर ही...
होता नामुमकिन पहुंचना
किसी के दिल तक
किसी की रूह तक
जो नहीं सुदूर
आसमान की तरह
फिर भी सब
कहाँ पहुँच पाते वहां तक
कोशिश करने पर भी...
इक सच हैं ये भी...!!!
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तब ‘दिव्या’ ने उसे इस कटू सत्य से परिचित कराने की ख़ातिर ये अहसास दिलाया कि उसके प्रयास सफ़ल नहीं हो रहे कि अगला केवल उनको नजरअंदाज़ ही नहीं कर रहा बल्कि वो उसे स्पर्श भी नहीं कर पा रहे कि उसके ‘दिल’ और ‘स्वर्णा’ की प्रीत के बीच वो ‘तीसरी’ एक दीवार की तरह खड़ी हैं जिससे टकराकर उसके प्रयत्न विफ़ल हो रहे तो उसे फ़िज़ूल अपनी वफ़ा नहीं गंवानी चाहिये बड़ी कीमती होती ये शय बचाकर रखे... शायद, आगे जरूरत पड़ जाये तो इस बात ने उसकी आखें खोल दी और वो उस अवरोध को पार कर आगे बढ़ सकी... पर, सब कहाँ ये समझ पाते... पत्थरों से सर टकराते...???    
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१७ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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