गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

सुर-३५८ : "खुशियाँ बांटो... सांता बन जाओ...!!!"

रोज-रोज
रात लेकर लाती
अंखियों में स्वपन हजार
लेकिन एक रात आती
जो कर जाती उनको साकार
सबकी तो नहीं
मगर, कुछ लोगों की
मुराद पूरी कर देती हर बार
कि मन का विश्वास ही
बन जाता सांता
दे जाता दामन में खुशियाँ अपार ॥
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मित्रों...,

बचपनकी मासूमियत, निश्छलता नहीं जानती सुख-दुःख, अमीरी-गरीबी वो तो केवल ख्वाहिशों संग अपने कदम बढ़ाती और जो कुछ भी मन को भाता उसे पाने की तमन्ना अपने पालकों से ज़ाहिर कर देती जो उनकी तरह नादान तो होते नहीं इसलिये जानते कि उनकी चादर में कितना समा सकता तो उतना ही या उससे थोड़ा-सा अधिक ही अपने बच्चों को देने की कोशिश करते जबकि उनका भी दिल चाहता कि वो अपने आँखों के तारों को वो सब कुछ दिला दे जो उसके लबों पर मनुहार बन आता फिर चाहे वो आसमां का चाँद हो या धरती का कोई खिलौना मगर, सबकी जेब उसे ये इजाज़त नहीं देती कि वो अपने नन्हे-मुन्नों की छोटी से छोटी इच्छा को भी पूरी कर सके कि उनके लिये तो एक वक़्त की रोटी बल्कि कहे कि दो निवाले जुटाना भी दुष्कर कार्य होता फिर भी इस बात को समझने की जिनकी उमर नहीं वो तो जिद करते ही तो ऐसे में उनको बहलाने ही तो सांताका किरदार गढ़ा गया जिसका दिलासा देकर माँ उनके नाज़ुक दिल को सब्र का घूंट पिला सुला देती कि ओ मेरे लाल, मेरी दुलारी तुम्हारी जो भी मनोकामना हो उसे एक पर्ची पर लिख सच्चे मन से अपने साथी सांताको याद कर सो जाना फिर देखना किस तरह भगवान भेजता हैं उस प्यारे से दोस्त को जो रात को आयेगा और तुम्हारी मनोकामना चुटकी में पूरी कर देगा ।

इस बात पर विश्वास कर अपनी मनचाही चीज़ को मचलते बच्चे ख़ुशी के उमड़ते सागर को भीतर दबाये उस चीज़ को सोचते-सोचते आँख मूंद ख्वाबों-ख्यालों की दुनिया में खो जाते फिर पता ही नहीं चलता कब रात बीत जाती और सुबह का सूरज उनके लिये खुशियों की सौगात लेकर आ जाता और उनकी मुंहमांगी मुराद को कभी तो कोई सचमुच का देवदूततो कभी इंसान के रूप में छिपा कोई मददगार तो कभी उनकी माँ या उनके पिता ही सांताबन पूरी कर देते याने कि हर किसी के अंतस की चाहत को हकीकत में साकार करने वाला ही सही मायनों में सांताकहलाता जो जरूरी नहीं कि लाल व सफेद रंग के कपड़े पहने लंबी-लंबी दाढ़ी वाला हो जिसके हाथों में तरह-तरह की वस्तुओं से भरा झोला लटका हो वो तो किसी भी रूप में या किसी भी भेष में आ सकता केवल हमारे पास नज़र हो उसको पहचानने की तो हम उसे किसी भी स्वरूप में देखकर जान लेते कि यही तो हैं सांता’... कभी-कभी तो हम स्वयं ही अपने आपको ही अपना मनचाहा उपहार देकर वही बन जाते तो ये जो सांताका बाहरी आकार-प्रकार हैं ये तो केवल उस हमदर्द का एक तयशुदा रूप-रंग हैं लेकिन यदि मन की आँखें खुली हो तो हम अपने आस-पास घुमने वाले अनेकों सांताको पहचान सकते जो उसी की तरह से दूसरों की आधी-अधूरी तमन्नाओं को पूर्णता का जामा पहनाते हैं ।

सांता क्लॉज़जो भी हो कल्पना या हकीकत पर, हर किसी की ज़िंदगी में जो भी छोटी या बड़ी इच्छायें होती वो कम से कम उनके पूरा होने का विश्वास तो पैदा करता इस तरह से ये कमज़ोर व्यक्ति को भी संबल देता कि कोई तो हैं जो उसकी ख्वाहिश को पूरा कर सकता भले ही ये बचपन का निर्दोष भोलापन हो जो सहज ही हर बात में विश्वास कर लेता लेकिन इसने न जाने कितने ही बच्चों की कल्पनाओं में हकीकत के रंग भर उनको सचमुच का अहसास दिया इसलिये उसका आगमन सबको लुभाता और आज के दिन तो हर कोई बच्चा बन उसका इंतजार करना चाहता क्योंकि भले ही कोई बड़ा हो जाये लेकिन उसकी इच्छायें तो कभी खत्म नहीं होती बल्कि वो तो उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती केवल ये होता कि बड़े होने पर हम ये जान लेते कि हमें अपने मनपसंद सामान दिलाने वाला सांताकौन था ऐसे में अब अपनी संतानों के लिये वही भूमिका हम निभाना शुरू कर देते तो इस तरह से ये परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी सालों से चली आ रही कि जैसे ही कोई बच्चा बड़ा होता तो वो अपने बच्चों के लिये अपने माता-पिता की तरह सांताबन जाता जो ये सिद्ध करता कि सांतातो सबके अंदर होता तो... आओ चले उसे जगाये किसी की इच्छा पूरी कर जाये... इस तरह 'क्रिसमस' की पूर्व संध्या मनाये... :) :) :) !!!     
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२४ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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