बुधवार, 23 दिसंबर 2015

सुर-३५७ : "नूरजहाँ की गायिकी... कला की अद्भुत अदायगी...!!!"

गायिकी
अमर रहती सदा
गायक/गायिका
भले ही रहे न रहे
उस पर बसी हो
यदि कंठ में स्वर की देवी
आवाज़ में हो कशिश
तो फिर वो 
साथ अपने कलाकार को भी
सदा जीवित रखती
फिर जब बात हो
सुरों की शहज़ादी की तो
‘नूरजहाँ’ ख़ुद ब ख़ुद याद आती
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मित्रों...,

दिया बुझाकर आप जलाया
तेरे खेल निराले... दिल तोड़ के जाने वाले... !!!

इस गीत को तन्हाई में सुने तो अहसास होगा कि आवाज़ की अति कोमलता भी हृदय को तडफाने के काबिलियत रखती कहते हैं कि जब वो सुरों की साधिका के नपे-तुले गले से निकले तो उसका उतार-चढ़ाव अपने साथ-साथ सुनने वाले को भी कभी कल्पनाओं के किसी उच्च शिखर पर बैठा देता जहाँ सिवाय सुकून के कुछ भी न महसूस होता तो कभी हौले से हकीकत के धरातल पर खड़ा कर देता जहाँ आँखों में अश्कों की नमी छोड़ जाता जो अपने आप में ही उस फ़नकार के फन को साबित करता जिसमें अपने श्रोताओं को बांधकर रखने का हुनर होता जो अपने आप ही नहीं आ जाता उसके लिये बड़ी साधना करनी पड़ती तब कहीं जाकर कला की देवी का वरदान प्राप्त होता जिसके कारण कोई कलाकार इतना सिद्धहस्त बन जाता कि फिर वो कोई भी नगमा गाये या कुछ भी यूँ ही गुनगुनाये सब कुछ लाजवाब बन जाता तभी तो फ़िल्मी दुनिया का वो दौर जबकि आज की तरह तकनीक मौज़ूद नहीं थी तो अपने कंठ एवं साजों से ही अपने तराने को बेमिसाल बनाना होता ऐसे में ‘नूरजहाँ’ ने अपनी गायिकी ही नहीं अदाकारी भी कुछ ऐसा समां बनाया कि वे एक उम्दा अभिनेत्री ही नहीं बल्कि ‘मल्लिका-ए-तरन्नुम’ का ख़िताब भी हासिल कर पाई जो ज़ाहिर करता कि वे अपने दौर की सर्वश्रेष्ठ फ़नकारा थी तभी तो उस समय आने वाली सभी गायिकायें उनकी ही तरह गाने का प्रयास करती जिस तरह से उस जमाने के सभी पुरुष गायक ‘के. एल. सहगल’ की तरह तरह से गाते थे क्योंकि ये सवाक फिल्मों की शुरूआत थी तो जिन्होंने हिंदी फिल्मों को गाना सिखाया या जिनकी आवाज़ से रजत पर्दा सुरीला हुआ वो सभी मील के पत्थर बन फ़िल्मी दुनिया की इतिहास में सदा-सदा के लिये अमर बन गये जिनके किस्से आज भी उनके सभी प्रशंसकों के जेहन में उतने ही ताज़ा हैं जैसे कि मानो ये कल की ही बात हो तभी तो उनके जाने के बरसों-बरस बाद भी हम उनको उतनी ही शिद्दत से याद करते कि उन्होंने हमारी तन्हाई को महकाने दिल को छूने वाले सुरीले नगमे दिये तो हमारा मनोरंजन करने अपनी अदाकारी के नायाब जीते-जागते चरित्र भी दिये जो अपने नाम से सदा-सदा के लिये अमर बन गये

आंधियां गम की यूँ चली बाग़ उज़ड़ के रह गया...

स्वरों में कंपन देकर उनको लहराते हुये हवा के झोंकों की तरह सर्वत्र संचारित कर देना ‘नूरजहाँ’ की खासियत थी इसलिये जब भी वे जो भी गाती तो उसके सुर अपने आप ही चारों दिशाओं में फ़ैल जाते यहाँ तक कि वे जब हिंदुस्तान को छोड़कर भी चली गयी तो उनकी आवाज़ हर सरहद की दीवार और दूरियां नापकर भी हमारे कानों तक आ गयी कि कलाकार न तो मज़हब और न ही किसी मुल्क की जागीर होते वो तो केवल अपने चाहनेवालों के दिल की संपत्ति बन सदा उनके अंतर में कैद रहते और जब-जब भी उनकी पुण्यतिथि या जयंती आती तो हमें उनकी स्मृति स्वतः ही आ जाती तो आज मल्लिका-ए-तरन्नुम की पुण्यतिथि पर मन से नमन... :) :) :) !!!          
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२३ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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