सोमवार, 14 दिसंबर 2015

सुर-३४८ : "सपनों के सौदागर... 'राज कपूर'...!!!"


अंतर की ‘आग’ से
हुई भावनाओं की ‘बरसात’
तो ‘आवारा’ प्रेमी ने
पहन ‘श्री ४२०’ का चोला
कहा ‘मेरा नाम जोकर’
मैं उस देश का वासी 
‘जिस देश में गंगा बहती हैं’
न हो कभी ऐसा काम कि
कोई कहे ‘राम तेरी गंगा मैली’
भले करो ‘बूट पॉलिश’
मगर, कभी न भूलना कि
‘सत्यम शिवम सुंदरम’
बचना ‘बॉबी’ के ‘प्रेम रोग’ से
‘कल, आज और कल’
करते रहो निरंतर ‘धरम-करम’
कि चल रहा ‘संगम’ काल
महानतम फिल्मकार ‘राजकपूर’ 
अपनी तमाम फिल्मों से     
दे गये संदेश कि ‘जागते रहो’ सदा
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मित्रों...,

भारतीय फिल्मों के इतिहास में केवल एक ‘कपूर खानदान’ का योगदान ही इतना अधिक हैं कि उसकी तुलना किसी विशाल ‘वट वृक्ष’ से की जा सकती हैं जिसकी जड़े ही नहीं शाखायें भी धरती के वृहद् क्षेत्र को घेरे रहती हैं उसी तरह ‘पृथ्वीराज कपूर’ से शुरू इस वंशबेला का विस्तार ‘राज कपूर’, ‘ऋषि कपूर’ से लेकर वर्तमान में ‘रणवीर कपूर’ तक पहुँच गया हैं और यदि इसे ‘ट्री’ के रूप में दर्शाये तो इसकी जड़, तना, टहनियां अनंत तक फैल जायेगी कि इस परिवार के हर सदस्य का इस सिने जगत से कोई न कोई तार जुड़ा हुआ हैं और भविष्य में भी इस कुल से उम्मीद की संभावनायें खत्म नहीं हुई हैं कि ये लगातार बढ़ता ही जा रहा हैं मगर, आज दिन हैं हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े तमाशबीन का दर्जा हासिल करने वाले महान अभिनेता ‘पृथ्वीराज कपूर’ के बड़े साहबजादे ‘राज कपूर’ का जो १४ दिसंबर १९२४ को अविभाजित भारत के भूखंड ‘पेशावर’ में एक सुसंस्कृत सभी कुलीन परिवार में पैदा हुये जो आज किसी भी परिचय का मोहताज़ नहीं हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी उसने अपने अस्तित्व को उतने ही जोश-खरोश के साथ बरकरार रखा हैं जहाँ बात किसी की भी हो वो अपने आप ही शीर्ष तक पहुंच जाती कि सिलसिलेवार इसके सिरे नीचे से उपर की और मजबूती से जुड़े हुये हैं अभी भी एक साथ कई सदस्य अपनी सशक्त मौजूदगी से इस कुनबे की शान में वृद्धि कर रहे हैं जहाँ कभी लडकियों के फिल्मों में काम करने पर मनाही थी वहीँ अब वे भी शीर्षस्थ नायिकायें बन अपनी प्रतिभा से अपना मुकाम बना चुकी हैं तो बिला शक आने वाले समय में भी हम सबको कई बेमिसाल अदाकारी के जलवे देखने मिल सकते हैं

हिंदी सिनेमा के सौ सलाना इतिहास में यदि किसी काल को ‘स्वर्ण युग’ की उपमा दी जाये तो निसंदेह वो ‘दिलीप-राज-देव’ की तिकड़ी से ही शुरू होगा जब धीरे-धीरे वो अनगढ़ से अपने ठोस स्वरूप की तरफ बढ़ने लगा था और कलाकारों व निर्देशन या अन्य सभी माध्यमों में भी उसका विकास काफ़ी हद तक हो चुका था जिसमें ‘राज कपूर’ तो एक कदम आगे ही थे कि उन्होंने अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता से महज़ २२ साल की नाज़ुक उम्र में अपने दम पर ‘आग’ जैसी संवेदनशील फिल्म का निर्माण-निर्देशन कर हर किसी को अचंभित कर दिया जिसकी वजह शायद, यही थी कि ‘एक’ तो वे इसी उद्देश्य को पूरा करने यहाँ आये थे ‘दूसरा’, उनका मस्तिष्क इतना अधिक उर्वरा शक्ति से भरपूर था कि उसमें जो स्वपन दृश्य चलते थे उनके फिल्मांकन मात्र ने ही उनको भारतीय फ़िल्मी जगत के प्रथम ‘ग्रेट शो मैन’ का ख़िताब दिलवा दिया याने कि उनकी सोच में सदैव फिल्म ही चलती रहती थी इसके अतिरिक्त उनको संगीत, कहानी, कलाकारों की भी उतनी ही उम्दा समझा थी कि उनकी फिल्मों के छोटे-बड़े समस्त किरदार, फोटोग्राफी, पहनावा, भाषा, गीत और कथा सभी कुछ लाजवाब होता था जिसमें कोई जरा भी नुक्स नहीं निकाल सकता था ये सब उनको ईश्वरीय देन थी तभी तो जब किशोरावस्था में वे ‘गणित’ और ‘लेटिन’ जैसे विषयों में फेल हो गये तो निराश होने की बजाय उन्होंने इस औपचारिक शिक्षा को अनावश्यक मान छोड़ने का निर्णय लिया कि उन्हें तो कम समय में अधिक से अधिक कार्यक्षेत्रों में अपने हुनर का उपयोग करना था तो ऐसे में उन्होंने अपनी पिता ‘पृथ्वीराज कपूर’ से जाकर कहा कि---‘किसी को यदि ‘वकील’ बनना हो तो वो ‘लॉ-कॉलेज’ में जाता हैं और यदि ‘डॉक्टर’ बनना हो तो ‘मेडिकल कॉलेज’ में लेकिन मुझे तो फिल्म निर्माता बनाना हैं तो मैं कहाँ  जाऊं ???’ तब आज की तरह के तकनीक से संपन्न प्रशिक्षण संस्थान तो थे नहीं कि उनके पिता उनको वहां जाने की सलाह देते तो वे खामोश रह गये लेकिन  उनको तो अपना लक्ष्य सिद्ध करना ही था तो उन्होंने ‘जीवन की पाठशाला’ को सीखने का सर्वोत्तम माध्यम मान ‘रणजीत स्टूडियो’, ‘बॉम्बे टाकीज’ के साथ-साथ ‘पृथ्वी थियेटर’ में जाकर स्वयं अपने एवं दूसरों के अनुभवों से ज्ञान प्राप्त किया यहाँ तक कि छोटे-से-छोटे काम में भी गुरेज नहीं किया कभी फर्श का पौंछा लगाया तो कभी फर्नीचर जमाया तो कभी ‘क्लेप बॉय’ बन ‘क्लेप’ भी दिया और इस तरह धीरे-धीरे सिनेमा की बुनियादें बातें सीखते गये तभी तो नाज़ुक उम्र में इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा सके और शीघ्र ही उन्होंने १९४७ में अपने स्वयं के बैनर ‘आर.के स्टूडियो’ की स्थापना भी कर दी तो बस, फिर इसके लिये अपने दल का गठन करना भी शुरू कर दिया जिसमें एक से बढ़कर एक नगीनों को चुन-चुनकर अपनी टीम बनाई जैसे ‘शंकर-जयकिशन’, ‘लता-मुकेश’, ‘शैलेंद्र’, ‘हसरत जयपुरी’, ‘मन्ना डे’ जैसे रत्नों को शामिल किया जो लगभग आजीवन ही उनके साथ रहे ।            

अपने परचम के तले उन्होंने ‘आग’ से लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक कुल १८ फिल्मों का निर्माण एवं निर्देशन किया जिनमें से एकाध को छोड़ सभी मील का पत्थर साबित हुई जिसमें उन्होंने मनोरंजन के संग सामाजिक संदेश, कला, व्यवसाय के मध्य तालमेल बिठाते हुये फिल्मों के रुपहले परदे पर अपनी अनूठी कार्यशैली, मौलिक सोच, अद्भुत स्वपनदर्शिता, अलौकिक कल्पनाशीलता एवं गहरी संवेदनशीलता से मानो ‘सैल्युलाइड’ पर कई कविताओं का जीवंत प्रदर्शन कर दिया और इसके अतिरिक्त उन्होंने उतनी ही लगन-समर्पण भाव से बाहरी निर्देशकों के लिये भी काम किया फिर उससे जो कमाई होती उसे वो पुनः अपने स्टूडियो में लगा किसी फिल्म का निर्माण कर देते इसके अलावा अपनी खुद की शख्सियत को फ़िल्मी दुनिया में पहचाने दिलाने उन्होंने ‘चार्ली चेपलिन’ को अपना आदर्श मान अपने लिये एक ऐसा ‘चरित्र’ गढ़ा जिसे न सिर्फ कोई भी देखकर आसानी से पहचान सकता बल्कि वो ‘आम आदमी’ का प्रतिनिधित्व करने में भी सक्षम हैं तो आज भी ‘राज कपूर’ की वही छवि नजरों के सामने तैरती जिसे केवल देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी उतनी ही लोकप्रियता हासिल हुई और ‘मेरा जूता हैं जापानी...’ तो उस समय के नौजवानों का मूलमंत्र बन गया जिसने उनकी इस उपमहाद्वीप से रूस, चीन, टर्की तक पहुंचा दिया इस तरह वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने वाले पहले भारतीय फ़िल्मकार बन गये जिसे अपने देश के प्रधानमन्त्री से लेकर दूसरे देशों के बड़े-बड़े लोग भी उतना ही पसंद करते थे तो अपने काम के प्रति इस कदर समर्पित हस्ती को आज उनके जन्मदिवस पर इस शब्दांजलि के साथ ही ये शुभकामना कि बना रहे कपूर बिरादरी का ये साया जिसने फ़िल्मी दुनिया को अपने अथक परिश्रम से संवारा... :) :) :) !!!
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१४ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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