रविवार, 13 दिसंबर 2015

सुर-३४७ : "मन भले रहा रीता... अभिनय से दिल जीता... कहलाई 'स्मिता'...!!!"

कुछ किरदार 
करते विशेष दरकार
जिनको चाहिये
कोई ऐसा कलाकार
जो कर सके
उनको हूबहू साकार
तब आना पड़ता
कला को ले स्वयं अवतार
कुछ ऐसा ही हुआ
जब जन्मी ‘स्मिता पाटिल’
निभाने वो सभी पात्र जो बन गये
हिंदी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर
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मित्रों...,

हिंदी सिनेमा के सौ साल के इतिहास में से यदि ‘चरणदास चोर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’, ‘चक्र’, ‘आक्रोश’, ‘बाज़ार’, ‘मिर्च मसाला’, ‘सद्गति’, ‘रावण’, ‘सुबह’, ‘मंडी’, ‘अर्थ’, ‘अर्धसत्य’, ‘आखिर क्यों?’, ‘देवशिशु’, ‘गुलामी’, ‘वारिस’, ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता हैं?’ आदि... फिल्मों को अलग कर दिया जाये तो क्या हो ???

सोचकर देखिये एक बार तो अपने आप ‘स्मिता पाटिल’ की महत्ता का भी आभास स्वतः ही हो जायेगा कि एक ऐसी अभिनेत्री जो सिर्फ ३१ साल की नाज़ुक बोले तो एकदम छोटी-सी उम्र में ही जबकि बहुत से तो उस समय तक अपने आप से भी परिचित नहीं हो पाते वे तो अपना काम खत्म कर ख़ामोशी से इस दुनिया से अलविदा भी कर गयी जी हाँ... ‘स्मिता पाटिल’ १७ अक्टूबर, १९५५ को पुणे, महाराष्ट्र में एक सुसंपन्न अभी राजनैतिक परिवार में जन्मी उनके पिता ‘शिवाजीराय पाटिल’ उस वक़्त महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे और उनकी माँ एक समर्पित समाज सेविका थी और उन्होंने 'फ़िल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया', पुणे से स्नातक की उपाधि ली और उसके बाद ‘मराठी टेलीविजन’ में ‘समाचार वाचिका’ के रूप में अपना काम करना शुरू किया तब वहां उस समय के कला फिल्मों के बेहतरीन निर्माता-निर्देशक ‘श्याम बेनेगल’ की उन पर नज़र क्या पड़ी मानो सिने जगत के उन सभी किरदारों को अपने इंतज़ार का परिणाम मिल गया जो अब तलक रजत पर्दे पर साकार न हुये थे कि उनको आत्मीयता से निभाकर जीवंत करने वाली अभिनेत्री ही न मिली थी तो बस, जिस उद्देश्य के निर्वहन हेतु वे इस धरती पर जनम लेकर आई थी उसको पूर्ण करने के लिये सूत्रधार की तरह ‘श्याम बेनेगल’ उनके जीवन में आये अपनी उस मुलाकात के संबंध में ‘बेनेगल साहब’ ने स्वयं ही लिखा कि---

“मैंने ‘स्मिता पाटिल’ को पहली बार मुंबई दूरदर्शन केंद्र पर देखा था उन दिनों वे मराठी के समाचार टी.वी. पर पढ़ती थी उनके पिता तब महाराष्ट्र में राज्यमंत्री थे, ‘स्मिता’ को देखते ही मैंने महसूस किया कि वे एक सफल अभिनेत्री हैं उनके बोलने का तरीका, आँखों का भाव और आवाज़ ऐसी थी कि वे किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती टी.वी. के स्क्रीन पर तो वे और भी लुभावनी लगती थी वे सही मायनों में सुंदर थी एकदम शुद्ध भारतीय सौंदर्य से भरा सांवला सलोना व्यक्तित्व था जिसे नजरअंदाज़ कर पाना असंभव था”

वाकई एक कलापारखी के शब्दों से ये ज़ाहिर होता कि यदि नजरों से ही किसी को पहचानने उसकी प्रतिभा को आंकने की क्षमता हो तो फिर एक बार देखना ही काफी हैं तो वही हुआ चूँकि वे उस समय ‘चरणदास चोर’ नामक कला फिल्म पर काम कर ही रहे थे तो उसकी एक छोटी-सी भूमिका के  लिये उन्होंने उसे तुरंत अनुबंधित कर लिया इस तरह १९७५ में जब वे २० बरस की रही होगी एक अभिनेत्री के रूप में रुपहले पर्दे पर नमूदार हो गयी जबकि उन्होंने न ही अभिनय का कोई प्रशिक्षण ही लिया थ और न ही उनके परिवार से ही कोई इस क्षेत्र में आया था पर, उनको तो अपने तयशुदा चरित्रों को साकार करना ही था तो अवसर एक के बाद एक लगातार मिलते चले गये ‘बेनेगल जी’ तो जैसे उनके धर्मपिता बनकर आये थे तो उसके बाद उन्होंने उसे ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’, ‘मंडी’ जैसी कालजयी फिल्मों में भी अवसर दिया जिन्होंने फ़िल्मी दुनिया के खजाने में वृद्धि की और इतिहास में अपना नाम अमिट कर लिया कि हर एक फिल्म अपने आप में संवेदनाओं का एक संपूर्ण दस्तावेज हैं जिन पर अलग-अलग शोध किया जा सकता हैं ।   

‘स्मिता’ पूरी तरह से कला को समर्पित एक बेजोड़ भावपूर्ण स्वाभाविकता से भरपूर सहज-सरल अदाकारा थी तो जो भी पात्र उनको निभाने को दिया जाता वे उसमें पूरी तरह से रम जाती फिर वही नजर आती चाहे वो रोल सादा हो या ग्लेमर से भरा वे संतुलन बनाना जानती थी तभी तो उन्होंने कला फिल्मों के साथ-साथ ही व्यवसायिक सिनेमा में भी उतने ही आत्मविश्वास से काम कर अपना स्थान बनाया और सभी नामचीन अभिनेताओं के साथ अपनी जोड़ी बनाई वे सिर्फ़ पर्दे पर ही कोई भूमिका अभिनीत नहीं करती बल्कि वास्तविक जीवन में भी उतनी ही संवेदनशील थी और अपनी माँ की तरह समाज सेवा से भी जुडी हुई थी कि एक जीवन में ही एक साथ कई जीवन जी रही थी शायद ऐसा ही होता जब जिंदगी छोटी होती तो तन-मन में ऊर्जा अधिक होती जिसके दम पर व्यक्ति उसे ही ‘लार्जर देन लाइफ’ बना लेता तो वही ‘स्मिता’ ने भी अपनी बहुमुखी क्षमताओं से किया और एक अभिनेत्री के अलावा एक समाज-सेविका व एक पत्नी के रूप में भी अपने किसी भी काज में कोई कमी न रखी केवल ३० साल का बेहद थोड़ा-सा वक्त लेकर आई थी वो यहाँ पर, उतने जरा-से लम्हों में ही इतना कुछ कर लिया कि लोग सौ साल जीकर भी फ़िज़ूल जीवन गंवाकर चले जाते पर, वे तो ३१ साल की अवधि में लगभग ५० से ज्यादा फिल्मों में उम्दा अविस्मरणीय अभिनय कर हम सबके जेहन में अपनी वो हंसती, मुस्कुराती, रोती-गाती तरह-तरह की छवियाँ छोड़ गयी जिनको देख-देख हम फिर से उनको अपने बीच जीवित महसूस करते और जब-जब आज का दिन आता तो उनको याद कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते कि आज से कोई तीस बरस पहले १३ दिसंबर १९८६ को वे अपने ही अंश को जन्म देते समय इस जगत से अचानक ही चली गयी पर, हमको फिल्मों की अनमोल सौगात सौंप गयी... तो उनकी उस विविध भूमिकाओं को देख करते उनका स्मरण... जिनका भले ही हो गया मरण... पर, उन फ़िल्मी किरदारों में बसे उसके अक्स का न होगा कभी क्षरण... वो रहेंगे सदा अमर... ‘स्मिता’ तुमको मन से नमन... :) :) :) !!!                   
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१३ दिसंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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