गुरुवार, 10 मार्च 2016

सुर-४३५ : "काव्यकथा : 'जब होता प्रेम... होता नया जन्म'...!!!"


दोस्तों...

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'रति' जिसने अभी उमर के सबसे नाजुक दौर में प्रवेश किया था कुछ दिनों से खुद में बड़ी प्यारी तब्दीलियां महसूस कर रही थी... पता न चलता कब बैठे-बैठे मुस्कुराने लगती तो कब अपने आप आँख नम हो जाती... कभी बात-बात पर तुनकने वाली अब नखरे करना ही भूल गयी आज जब उसकी करीबी सहेली 'निशा' ने भी उसे टोका तो वो सोचने लगी... न जाने क्यों मुहब्बत में ऐसा होता कि अचानक कोई मिल जाता ज़िंदगी के सफर में नितांत अनजाना मग़र, दिल को लगता जाना-पहचाना चंद पलों की मुलाकात में ही कुछ ऐसा असर होता कि न तो अपना दिल और न ही अपनी ज़िंदगी अपनी रह जाती अपने आप ही आने वाला हर लम्हा उसके नाम हो जाता साँसे अपनी होती पर, जीवन उसको देती भूख, प्यास, नींद सब न जाने कहाँ खो जाते एक अजनबी के लिये हम ख़ुद अपने आपको अजनबी लगने लगते क्योंकि ये जो हमारे भीतर से हमारा नया रूप जन्मा हैं वो हमारे लिये भी तो एकदम नया-नया हैं हमारी अपनी वो सभी आदतें या पसंद जिनकी हमें जानकारी ही नहीं थी एकाएक उभरने लगी हैं ।

कहीं इसकी वजह वो दो आँखें तो नहीं जिन्हें देखकर वो खुद को भी भूल जाती और जैसे ही उनकी याद आई जेहन में शब्द उतरने लगे---

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इक बूंद इश्क़
तेरी आँखों से चखा
दिल में कोई
नया ख़्वाब-सा जगा
टूट न जाये कहीं
चाहत का ये सिलसिला
नींद से न जागना मुझे
हैं सफर अभी नया-नया
नाज़ुक अहसास ने
यूँ रफ़्ता-रफ़्ता छूआ कि
लाख संभाला पर
ख़ुद पर काबू ही न रहा
आख़िरकार ये मानना पड़ा
मुहब्बत का सुरूर
जब एक बार चढ़ा तो
फिर चढ़ता ही गया
सच कहते दुनिया वाले
जिसने भी इस मय को पिया
शमां-ए-इश्क़ पर परवाने की तरह
आप अपना फ़ना किया ।।
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सच, ये इश्क़ का ही सूफ़ियाना असर हैं जिसने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया अब तो कुकनुस की तरह अपनी ही आग में जलकर अपने ही नवीनीकरण को देखने के सिवाय कोई चारा नहीं और सब कुछ रब के हवाले कर वो आँख बन्द कर उन ख्याली नयनों के सागर में खो गयी... :) :) :) !!!
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१० मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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