रविवार, 13 मार्च 2016

सुर-४३८ : "इच्छा से न हारे... उचित/अनुचित को विचारे...!!!"


दोस्तों...

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अंत नहीं
मन की इच्छाओं का
मगर, जरूरी
उचित-अनुचित का भी तो
तनिक ज्ञान हो
जिसके बिन यदि हो जाये
पूरी कोई कामना
तब भी चैन कहाँ मिलता
और जो रहे अधूरी
तब भी तो आत्मा तड़फती
तो सिर्फ कोरे अरमान होना बेमानी
जब तक कि न हो
चंचल मन की लगाम हाथ में तो 
फिर ख्वाहिशों के घोड़े
किधर ले जाये साथ अपने
ये भला कौन जान सका ???
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कोई भी ऐसा इंसान नहीं जिसके मन में कोई अरमान नहीं लेकिन कितने होते ऐसे जिनकी ख्वाहिशें पूरी होती और उनको अपनी मनचाही जिंदगी मिलती क्योंकि केवल मन में किसी तमन्ना का होना भर ही काफी नहीं जब तक कि उसे साकार करने जितनी जरूरी लगन और उसको हकीकत का जामा पहनाने लायक कर्म करने की ऊर्जा देह में न हो कि इनके बगैर सब कुछ निरर्थक और अपने अंतर में जगने वाली हर एक इच्छा का संबंध हमारी चाहत से होता जिसमें यदि थोड़ी भी कमी रह गयी तो फिर उसे फलीभूत करना असंभव होता तो ऐसे में अपने भीतर उठने वाली हर छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी आरजू पर नजर रखना चाहिये और ये भी कि उसका पूरा होना या न होना हमारी जिंदगी के लिये कितना आवश्यक उसी के अनुसार फिर आगे की रणनीति बना अपना काम करना चाहिये लेकिन महज़ चंद लोग ही इस पर ध्यान देते बाकी तो येन केन प्रकरेण जैसे भी संभव हो अपने मन की करना चाहते फिर जब उसका भुग्त्मन करना पड़े तो पछताते जबकि यदि उसे पूरी करने से पहले ही विचार कर लिया होता तो ये नौबत कतई नहीं आती पर, अक्सर ये भी होता कि खूब सोच-विचार के कदम उठाया जाता लेकिन ये नहीं सोचते कि जिस इच्छा के लिये ये किया जा रहा क्या वो उचित हैं या अनुचित ???

ये एक नितांत जरूरी प्रश्न जिसका उत्तर मिले बिना किया गया कोई भी प्रयास बेकार ही जायेगा क्योंकि यदि वो उचित मगर, किस तरह से उसके लिये कार्यवाही करना वही निर्धारित नहीं तो भी वो पूरी न होगी और यदि वो अनुचित तो सब कुछ बड़ी ही गंभीरता के साथ बारीकी से प्लान किये जाने पर भी अंततः दुःख की वजह बनेगी इसलिये जो काम पूर्व में करना उसे बाद में करने का कोई औचित्य नहीं जो कि अमूमन हम सब करते हैं शायद, ये सब हमारी आदत में शुमार हो चुका कि किसी चीज़ को पाना तो बस, उसके सिवाय फिर कुछ न नजर आता और लग जाते पीछे उसको हासिल करने और जिसको नहीं पाना फिर भले वो जीवन के लिये कितनी भी आवश्यक हो एक कदम भी न बढ़ाते पर, जब बाद में अहसास होता तो जरुर पछताते तो इस बात को समझने पर भी हम आज तक सुधरे क्यों नहीं या हमने अपनी आदतों में कोई बदलाव क्यों नहीं किया क्योंकि ये गलती तो हम निरनत करते आ रहे बचपन से रगों में समा गयी ये बात कि जो कुछ चाहिये बस, चाहिए तो पालकों से जिद कर ले लेते बाद में जब बड़े होते तो अपना जोर लगा पा लेते पर, यदि उसी बाल्यकाल में ही जरूरी-गैर-जरूरी की समझ आ जाये तो फिर जीवन में कभी भी अपने अरमानों की पूर्ति पर रोना न पड़े ।

हमारे जितने भी धर्मग्रंथ या उपदेशों से भरे ग्रंथ सबका यही सार सबमें यही लिखा कि 'माया महा ठगिनी' न जाने कौन-सा भेष धरकर हमारे सामने आ जाये लेकिन सब कुछ जानकर भी हम अनजान बने रहते और उस माया के हाथ के खिलौने बन उसके इशारों पर नाचते रहते यहाँ तक कि समर्थ लोग हो या सन्यासी याराजा-महाराजा या फिर कोई कितना भी बड़ा संयमी याइंद्रजीत क्यों न हो कभी न कभी इस माया के फेर में आ ही जाता क्योंकि कोई भी उसके रूप को पहचान जो नहीं पाता बसजरा सा आंख खुली हो तो समझ जायेंगे कि जिसकी वजह से हम अपने मार्ग से भटक रहे या जिसकी खातिर हम गलत-सलत करने से भी न हिचक रहे या जिसके मोह में पड़कर हम हर उपाय इख्तियार करने में या किसी भी हद तक जाने  में पीछे न हट रहे तो बस, यही वो जगह या समय कि जब हम संभल जाये अपने आगे बढ़े कदमों को पीछे ले ले फिर कोई भी शैतान नहीं जो हमें अपने काबू में कर सके या हम पर अपनी हुकूमत चला सके... सभी कहानियां यही तो बताती लेकिन हम अपनी कहानी खुद लिखने के चक्कर में इस तरह की हरकतें कर ही जाते तो अब जरा-सा संभल एक बार गौर करे कि कहीं हमारे साथ भी तो कुछ ऐसा ही नहीं हो रहा तो बस, तुरंत लगाम खिंच ले... :) :) :) !!!                
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१३ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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