बुधवार, 2 मार्च 2016

सुर-४२७ : "हर रूप में लगे तू प्यारी... सलाम तुझे ऐ नारी...!!!"

दोस्तों...

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सर्वप्रथम
माँ रूप में ही
उसकी याद आती
कि उसी स्वरूप में वो
पूजी भी जाती
जिसके आशीष से
हर इच्छा आशीष पाती
होकर फलीभूत
खाली झोली भर जाती
सहकर हर दुःख-दर्द
संतान को हर कष्ट से बचाती
ले ले हर बला अपने सर   
ऐसा जो करती वो ‘माँ’ कहलाती 
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‘स्त्री’ के भिन्न-भिन्न स्वरूपों का जिक्र हो तो सबसे पहले उसके ‘माँ’ रूप की ही याद आती जिससे बाकी सभी रूप या रिश्ते जन्मते... यूँ कहे तो इसके बिना किसी का भी अस्तित्व संभव नहीं क्योंकि ये ही तो सबकी मूल हैं जिससे सभी पत्तियां, शाखायें, कलियों और फूलों का उसकी सीने पर खिलना संभव होता और वो भी तो अपने रक्त से सींचकर अपनी संतति का पालन-पोषण करती उसकी हर तकलीफ, उसकी हर पीड़ा ही नहीं बल्कि उसके बिना कहे उसकी ख़ुशी या सुख का भी पता लगा लेती कि उसके भीतर अपने ही अंश की हर बात को सुनने की अद्भुत मशीन कुदरत से प्राप्त होती तभी तो संतान चाहे उसके करीब हो या कितने भी मील दूर या चाहे सात समंदर पार ही क्यों न रहने चली जाये वो उसके दिल की बात सुन लेती उसकी कराह और हिचकियों को अपने भीतर महसूस करती जबकि अक्सर उसके बेहद नजदीक रहने पर भी उसके ही हाड़-मांस से बने उसके बच्चे सिर्फ उसको देखकर ही नहीं बल्कि कई बात तो उसके कहने पर भी उसकी वेदना को नहीं समझ पाते जबकि वही माँ जब वो ठीक से बोल भी नहीं पाते थे उनके उन अस्पष्ट शब्दों को बड़ी स्पष्टता से सुन व समझ लेती थी लेकिन जब उनका वक्त आता तो वही उनके कोख जाये उनके लफ्जों या लहजे साफ़-साफ़ बोले जाने पर भी महसूस नहीं करते क्योंकि माँ का प्रेम तो निःस्वार्थ और निर्मल होता तो उसका अपनी संतान से गहरा जुड़ाव होता अतः उसके मन की बात या उसके अंतर में उठती कोई भी तरंग माँ बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेती फिर उसके बोलने से पहले ही उसकी इच्छा पूरी करने हर जतन कर गुजरती क्योंकि वो अपने ही जिगर के टुकड़ों को कष्ट में न देख सकती तभी तो जो बच्चे अपने माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार करते वो उनके लिये भी ईश्वर से दुआ करती क्योंकि वो अपने बच्चों से कोई अपेक्षा या चाहना नहीं करती अतः उसे उसके व्यवहार से कोई ठेस न पहुँचती और उसे ये इल्म भी नहीं होता कि किसी दिन उसकी ऊँगली थामकर चलने वाला एक दिन उससे ऊँगली छुड़ाकर अपनी अलग ही दुनिया बस लेता 
   
कहते हैं कि किसी भी मानव का शरीर अधिकतम पैतालीस ‘डेल’ जो कि दर्द नापने की एक इकाई बराबर ही दर्द सह सकता लेकिन यही दर्द प्रसव के समय सत्तावन डेल तक पहुँच जाता जो कि लगभग शरीर की १२ हड्डियों के एक साथ टूटने जैसा होता लेकिन वो बिना उफ़ किये न सिर्फ माँ बनती बल्कि हंसती भी रहती लेकिन केवल जन्म देने से कोई माँ भले ही बन जाये मगर, जब तक वो माँ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती उसका माँ बनना सार्थक नही होता कि असली जिम्मेदारी तो उसके बाद ही शुरू होती जब वो असहनीय प्रसव पीड़ा से गुजकर अपना विस्तार करती और उसके बाद अपनी नींद, भूख, प्यास भूलकर खुद भले ही गीले में सो जाये लेकिन अपने बच्चे को सूखे में सुलाती, उसकी एक-एक कराह पर उसकी आँख खुल जाती तभी तो वो भी अपनी माँ के साये में बेफिक्र होकर सोता रहता या अपनी मासूम हरकतों से माँ को लुभाता रहता कि यही तो वो सुरत जिसे उसने अपने अपनी आँख खोलते ही सबसे पहले देखा तो फिर उसे ही वो किस तरह से उसके आँख बंद होते समय छोड़ देता या जो उसको सारे रिश्ते-नातों के नाम से एक-एक निवाला खिलाती जब उसकी बारी आती तो उसके पास समय ही नहीं होता कि माँ से  इतना ही पूछ ले कि उसने खाया या नहीं वो इतना सुनकर ही तृप्त हो जायेगी अपने माँ का उसके बुढ़ापे में उसी तरह से ख्याल रखना जैसा कि उसने आपके बचपन में आपका रखा था बेहद कठिन लेकिन उसका एक हिस्सा भी यदि हम सब कर सके तो उसके ऋण से तो उऋण तो नहीं होंगे लेकिन कम से कम मन पर पडा बोझ तो कुछ हल्का हो जायेगा कि हम जो अपने पेट में जरा-सा भी वजन लेकर एक पल नहीं चल सकते वहीँ हमारी माँ ने हमको पूरे नौ महीने तक अपनी कोख में लेकर न सिर्फ हर काम किया बल्कि हमारा ख्याल रखते हुये हमें अपने ही हाड़-मांस से विकसित किया हैं       

‘हर रूप में लगे प्यारी... सलाम तुझे ऐ नारी’ श्रृंखला की इस दूसरी कड़ी में आज ‘माँ’ के स्वरुप का चिंतन-मनन कर उसे साधुवाद देने का प्रयास किया गया पौराणिक कथा है जिसके बारे में कहीं किसी पौराणिक ग्रंथ में ये पढ़ा था कि---

एक बार नारद ने ब्रह्मा से पूछा कि, ‘आप क्या बना रहे हैं’?

ब्रह्मा का जवाब था- मां बना रहा हूं।

नारद ने फिर पूछा कि मां कैसे बनती है?

ब्रह्मा ने कहा कि, जिसकी कोख से इंसानियत जन्मती होजिसकी गोद में दुनिया समा जाएजो बच्चे की आवाज से उसकी परेशानी जान जाएजिसकी संतान यदि परदेश में भी रोये तो आंचल देश में भीगेलाख तकलीफों के बावजूद जिसके दिल से दुआ निकलेजिसके मन में जमाने भर का दर्द समा जाए पर अधरों पर आह न आये।

मां ऐसे बनती है।  मां ऐसी होती है।

कितना भी लिखे लेकिन माँ को पूरी तरह अभिव्यक्त कर पाना नामुमकिन केवल ‘माँ’ शब्द से ही उसे जाना और समझा जा सकता जिसमें सारा जहां समाया हुआ हैं... ऐसी माँ को हृदय की गहराइयों से सादर नमन और प्रेम... :) :) :) !!!
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०२ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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