सोमवार, 7 मार्च 2016

सुर-४३२ : "हर रूप में लगे तू प्यारी... सलाम तुझे ऐ नारी... !!!"

दोस्तों...

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शुरू हुआ
जो ‘बेटी’ के रूप में
वो सफर बड़ा लंबा था
गुज़रा कई पड़ावों से
तब कहीं जाकर
ठहरा उस मुकाम पर
जहाँ यात्रा में मिले रिश्तों संग
बढ़ता गया कारवां और
साथ उसके बढ़ती गयी उमर भी
तो देह की रंगत भी पहले सी न रही
जिसे देख बालों ने भी सफेदी ओढ़ ली
और वो जो कभी एक बच्ची थी
अब बूढी हो गयी थी
जिसे बच्चों ने ‘दादी’ और ‘नानी’
बोलना भी शुरू कर दिया था
जो उनके साथ फिर से बच्ची बनकर
जी लेती अपना बचपन
कभी लगा अपने वंशजों को सीने से
बांटती थी बरसों की सीढ़ियों से
संचित किया अनमोल ज्ञान    
इस तरह वो बिछकर पुल की तरह
दो पीढ़ियों को मिला रही थी
सौंप विरासत की डोर उनके हाथ
अपनी खानदानी परंपराओं
अपनी संस्कृति को बचा रही थी
जो मिली भूमिका उसको निभा रही थी
जैसे अब तक पूरी जिम्मेदारी से
उसने अपना हर फर्ज़ दिल से निभाया
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अब भले ही बदलते जमाने के साथ विशाल घरों की तस्वीर बदल गयी जो धीरे-धीरे समय रक साथ परिवर्तित होकर टूटते-टूटते एकल परिवार में ढल गयी लेकिन कभी किसी जमाने में एक ही परिवार के भीतर अनेक सदस्य एक साथ मिलकर रहते थे और हर रिश्ते का अपना एक अस्तित्व और अपना एक नाम होता था जो अब पश्चिमी संस्कृति में ढलकर गुमनाम होता जा रहा क्योंकि पश्चिम में तो हर रिश्ते के लिये एक ही शब्द जबकि हमारे यहाँ तो जितने रिश्ते उतने उनके नाम होते जिसे सुनते ही उसकी स्थिति का एकदम सही बोध हो जाता और इन सभी रिश्तों-नातों से हमारा परिचय करवाते थे घर के बुजुर्ग सदस्य जो सबको न सिर्फ पहचानते थे बल्कि अपने परिवार को बिखरने से बचाने हर मुशकि झेलते हुये भी सबको लेकर चलने में विश्वास करते थे तभी तो एक छोटे-से घर में इतने सदस्य समा जाते थे क्योंकि उनके दिलों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम का भाव रहता था जिसका जुड़ाव सबसे तेज होता और जो अनजानों को भी अपना बनाने के क्षमता रखता था

घर के बुजुर्गों को तो ‘दरख्त’ या ‘वट वृक्ष’ की संज्ञा दी जाती क्योंकि वे तो उसकी ही तरह अपनी जड़ों को फैलाये बढ़ते जाते जिसकी छाँव में पूरा परिवार खुद को सुरक्षित और सुकून से भरा हुआ महसूस करता लेकिन अब तो नुक्लियर फैमिली की संकुचित अवधारणा ने इस प्राचीन संस्कृति को लगभग समाप्त ही कर दिया हैं जिसके कारण हर घर में मिया-बीबी और बच्चे ही दिखाई देते जबकि पहले कभी हर घर में इनके अतिरिक्त अन्य कई रिश्ते तो रहते ही थे साथ बुजुर्गों का वरदहस्त भी सबके सर पर विराजमान रहता ही था जो सबसे अनुभवी और दुनियादारी से पके हुये तो होते ही थे साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत से भी परिचित होते थे जिसे वो पीढ़ी दर पीढ़ी एक से दूसरी  में संचरित कर अपनी विरासत वाहक की भूमिका भी निभाते थे तो साथ ही साथ उनके साथ बच्चों का बचपन भी न सिर्फ सुरक्षित रहता बल्कि उन्हें अपने बुजुर्गों से तो कई बाते सीखने को मिलती जो आज की पीढ़ी जानती तक नहीं क्योंकि उनके घर भी अपने मम्मी-पापा के अलावा कोई भी अन्य कुछ बताने वाला नहीं तो वे सब कुछ एक दुसरे से ही सीखते जिसकी वजह से उनके पास पुख्ता एवं प्राचीन ज्ञान नहीं होता जो ‘दादी’ या ‘नानी’ उन्हें कभी किसी कहानी के रूप में तो कभी किसी कविता या फिर कभी मुहावरे या लोकोक्ति के माध्यम से यूँ ही बाँट दिया करती थी जो कि उनसे पूर्व की पीढ़ी को हासिल भी हुआ पर, आज के अधिकांश बच्चे उससे वंचित तभी तो कटी पतंग से इधर-उधर भटकते हुये नजर आते ।

‘दादी’ या ‘नानी’ घर की आधार स्तंभ होने के अलावा खानदान की रवायतों व अनुभवों से रची-पगी होने के कारण किसी ज्ञानकोष से कम नहीं होती जिनके पास अनुभवों का वृहद खज़ाना और दुनिया भर की बातों की जानकारी होती जो उन्होंने अपने जीवन काल में यहाँ-वहां से बटोरी हुई होती तो इनसे ही वे अपनी संतान को हर तरह का ज्ञान देकर उनके ज्ञान में वृद्धि करती सिर्फ इतना ही नहीं वे तो अपने पोते-पोती / नाती-नातिन के संग खेल भी खेलती जिसके कारण वे उनके अधिक करीब होते और बड़ी मस्ती भी करते तो उनकी इस तरह की नोंक-झोंक से घर में आये दिन कोई न कोई दिल को छू लेने वाला दृश्य देखने मिल जाता कभी तो पोता-पोती मिलकर “दादी अम्मा... दादी अम्मा... मान जाओ...” गीत के जरिये उनको मनाते हुये नजर आते तो दूसरे किसी जगह बच्चे “नानी तेरी मोरनी को मोरे ले गये... बाकी जो बचा था काले चोर ले गये...” पर इठलाते हुये दीखते ये दिलकश नजारे अब न जाने कहाँ खो गये जो पहले कभी बड़े आम थे बल्कि कहे कि घर की रौनक ही जिनसे थी अब तो उन दादी-नानी को वृद्धाश्रम भेजकर उसकी जगह बाई या आया का प्रबंध किया जाता याने कि हद हो चुकी पराई संस्कृति को अपनाने की कि अपने आपको ही नहीं अपने अपनों को भी लोग भूल गये या भूलने लगे जिस पर यदि जल्द अंकुश न लगा तो एक दिन हम भी अकेले ही रह जायेंगे क्योंकि जो हम अपने माता-पिता के साथ व्यवहार करेंगे वही तो हमारे साथ भी होगा या नहीं सोचे जरा ???

एक स्त्री नवजात बच्ची के रूप में अपनी यात्रा शुरू कर धीरे-धीरे न जाने कितने रूपों में ढलती जाती अनुभवों की भट्टी में पकती जाती... तब कहीं जाकर वो ‘दादी’ या ‘नानी’ बन पाती आज उसके उसी पके फल के समान व्यक्तित्व को समर्पित हैं ये कड़ी... :) :) :) !!!       
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०७ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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