दोस्तों...
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मम्मा... मम्मा...
आज स्कूल में ‘मिट्टी का चूल्हा’ शीर्षक से कविता लिखकर लाने को कहा हैं लेकिन समझ
नहीं आ रहा क्या लिखूं क्योंकि हमने तो केवल उसका चित्र देखा लेकिन सचमुच उसको तो देखा
नहीं फिर किस तरह से कुछ भी लिखूं... तो अपने बेटे की बात सुन ‘रीना’ पुराने दिनों
में खो गयी जब वो छुट्टियों में अपनी नानी के गाँव जाती थी तो किस तरह सारे बच्चे
उनको घेर जमीन पर आलथी-पालथी मारकर बैठ जाते और जोर-जोर से चिल्लाते थे भूख लगी...
खाना दो... पर, जब से ये गैस का चूल्हा आया न तो कोई धरती पर ही बैठता और न ही
खाने में ही वो सौंधापन महसूस होता तो उन दिनों को याद करते कब उसने कलम उठाकर
लिखना शुरू कर दिया पता ही न चला---
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मिला के मिट्टी में
वो पुरातन मिट्टी का चूल्हा
उसकी जगह ले आये
गैस से चलने वाला चूल्हा
साथ चंद बीमारियां भी
जिसने काम आसान तो कर दिया
पर, प्राकृतिक सेहत को
कुछ मुश्किल भी बना दिया
जहां मिट्टी जोड़ रखती थी हमें
अपनी जड़ों अपनी भूमि से
देती थी अपनेपन का सौंधा स्वाद
वहीं कृत्रिम गैस ने बना दिया
पूरी तरह अप्राकृतिक
कि अब न रहे वो कच्चे आँगन
न गोबर से लिपा गेरु से पुता
घर क्या पूरे मुहल्ले को
एक करता हुआ वो सांझा चूल्हा
जिसकी मद्धम आंच में
अगर सिंकते थे मधुर रिश्ते
तो पकती थी आत्मीयता पूर्ण बातें
और उसके इर्द-गिर्द धरा पर बैठ
देह पाती थी माटी से जुड़ाव
ये अहसास उस चूल्हे की तरह ही
विलुप्त हो रहा धीरे-धीरे ।।
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अचानक उसकी कलम थमी
तो देखा बेटा ख़ुशी से ताली बजकर नाच रहा था वाह... मम्मा... आपने तो मेरा काम कर
दिया अब मैं कल यही कविता लेकर जाऊँगा और सबको बताऊँगा कि मेरी माँ ने लिखी हैं...
उसकी ख़ुशी देखकर ‘रीना’ ख्यालों की दुनिया से तो वापस आ गयी लेकिन अब मन में ये
ठान लिया कि अपने बच्चे को वास्तव में इन सब विलुप्त होती पुरातन लाभदायक चीजों से
परिचित करवाना होगा जिसके लिये जड़ो की तरफ लौटना ही होगा नहीं तो एक दिन वो इन सबको
तस्वीरों में या गूगल पर ही देखेगा और जो इंटरनेट या किताबें बतायेगी वही लिखेगा अपनी
तरफ से उसके विषय में विचार दर्शाने कोई भी अनुभूत अनुभव उसके पास न होगा... तो
उसने तुरंत इन गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाने का फैसला कर लिया... :) :) :)
!!!
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१८ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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