शनिवार, 26 मार्च 2016

सुर-४५१ : "भले न बनो 'ज्ञानी'... पर, जरुर बनो 'आदमी'...!!!"


दोस्तों...

___//\\___

‘मंजर’ तो
आस-पास दिखते कई
पुकारते भी हमें
बढ़ाते हाथ मदद के लिये
तो कभी देखते
बड़ी उम्मीदों के साथ
कभी हम रुकते
कभी पिघल भी जाते
तो कभी करना भी चाहते
जरूरतमंद की सहायता
पर, तभी न जाने कैसे ???
याद आता कि
अरे, उससे तो हमारा
कोई रिश्ता या नाता नहीं
क्यों किसी के फटे में टांग अड़ाना ?
क्यों किसी अंजान की खातिर 
अपना समय बर्बाद करना ?
क्यों फालतू मुसीबत में पड़ना ?
और फिर हम...
चुपचाप बढ़ जाते आगे
शुक्र मनाते कि चलो बच गये
लेकिन, जब पढ़ते
सुबह अख़बार में वो खबर तो
बड़े वाले हमदर्द बन संवेदना लुटाते
चार आंसू भी ढलका देते
पर, ये न सोचते कि
‘इंसानियत’ को भूलाकर
आज जिनके हम मददगार नहीं बने
मुंह फेरकर आगे निकल गये
कल वो भी तो हमें
किसी मुसीबत में फंसा देखकर
इसी तरह अजनबी बन गुजर जायेंगे
हमारा किया हमें लौटायेंगे
 
क्या नहीं... :( ????   
--------------------●●●

घटना-०१
-----------
‘कनिष्का’ ऑफिस को लेट हो गयी तो उसने जल्दी से स्कूटी निकाली और फुल स्पीड में भगा दी मगर, आगे ज्यादा ट्रैफिक में वो संभाल न सकी तो सामने से फल की टोकनी सर पर रखे आती एक फलवाली से टकरा गयी जिससे उसका सामान और वो दोनों गिर गये लेकिन उसे तो केवल घड़ी की तेज भागती सुइयां और उनके बीच अपने बॉस का चेहरा नजर आ रहा था तो उसने रुककर उसे देखने की बजाय गाड़ी आगे बढ़ दी जबकि पीछे वो गरीब औरत होने वाले नुक्सान के साथ-साथ अपनी कमर को पकड़े रो रही थी पर, आते-जाते लोगों को भी उसकी परवाह नहीं थी तो किसी तरह उसने अपने आप को उठाया और फूटपाथ पर बैठ सर पकड़ सोचने लगी जो हुआ सो हुआ मगर, अब रात को घर में चूल्हा किस तरह जलेगा ???

दूसरी तरफ़ ‘कनिष्का’ को ऑफिस में अपने प्रेजेंटेशन की वजह से सबकी बहुत वाह-वाही के अलावा वो प्रोजेक्ट भी हासिल हो गया जिसके लिये उसने इतनी मेहनत की थी और अब उसे अमरीका जाने का अवसर हाथ लगा था तो वो बहुत खुश थी, शाम की पार्टी की तैयारी में जुट गयी थी और सुबह वाली घटना की तो उसे याद तक नहीं थी
 
घटना—०२
------------
‘होली’ के अवसर पर नगर में बहुत बड़ा ‘कवि सम्मेलन’ था तो देश के बड़े-बड़े कवी-कवयित्री उसमें आमंत्रित थे जो अपने-अपने साधन से कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गये थे रात भर एक से बढ़कर एक कलमकारों ने अपनी कलम का जलवा अपनी दमदार प्रस्तुति से दिखाया शहर के एक ख्यातनाम कवि ने तो गरीबों और असहायों को अपनी कविता समर्पित करते हुये कहा कि वो इस बार ऐसे लोगों के बीच ही अपना त्यौहार मनायेंगे ताकि उन दुखियों को भी थोड़ी ख़ुशी दे सके जिसे सुनकर पंडाल के आस-पास बैठे निर्धनों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी और अगले दिन ‘होली’ पर वे सब बड़ी आस लगाये उनके घर के सामने एकत्रित हो गये जहाँ ‘होली मिलन समारोह’ चल रहा था जिसमें नगर के सभी नामी-गिरामी लोग आये थे तो जैसे ही कवि महोदय को खबर हुई उन्होंने पुलिस बुलाकर उन सबको अच्छे डंडे पड़वाये फिर भी वो दुखी लोग समझ न पाये कि ‘कवि’ और उसकी ‘कविता’ केवल मंच के लिये थी उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं इसलिये वे तो अब भी उम्मीद कर रहे हैं क्योंकि इसी के सहारे तो वे जिंदा हैं तभी तो पेट की खातिर किसी की भी बातों में आ जाते सिवाय भूख के वे किसी अहसास को नहीं जानते तो जहाँ उसकी व्यवस्था दिखे वे चले जाते

घटना-०३
-----------
‘अर्पिता’ अपने घर से दूर पुणे में एक होस्टल में रहकर अपनी ‘एम.बी.ए.’ की पढाई कर रही थी और कॉलेज में जैसे ही पंद्रह दिन के सेमेस्टर ब्रेक की घोषणा हुई उसने तुरंत ऑनलाइन ही अगले दिन का रिजर्वेशन कराया और अपना सामान पैक कर दूसरे दिन ट्रेन में बैठ गयी मगर, उसे कंफर्म आरक्षण न मिला तो वो एक जगह बैठ टी.सी. का इंतजार करने लगी जिसने उसे सीट दिला दी तो पहले तो उसने इत्मिनान से अपना सामान रख फिर आस-पास का जायजा लिया तो सामने की सीट पर एक फैमिली को देख चैन की साँस ली फिर नजरे घुमाई तो देखा उपर बर्थ पर कुछ हमउम्र लडके बैठे हैं जो शायद, उसी की तरह अपने घर जा रहे जो फ़िलहाल लैपटॉप में कोई मूवी देख एक-दूसरे को इशारा कर हंस रहे हैं फिर उसने सामने बैठे परिवार की महिला से बात की तो पता चला कि उसके पति वैज्ञानिक हैं जिन्हें कि सम्मानित करने के लिये दिल्ली बुलाया गया हैं तो वो पहले वो अपने घर पुणे जायेंगे फिर वही से दिल्ली को निकलेंगे तो उसने उनसे थोड़ी बातें की लेकिन वे जरा रिज़र्व नेचर के लगे तो वो अपना डिनर कर सो गयी पर, रात में उसे लगा जैसे कोई उसके बेहद करीब हैं आँख खोली तो सामने उन बदमाश लडको को पाया वो घबराकर उठी और उनको डांटने लगी तो वे और भी ज्यादा बदतमीजी करने लगे वो उठकर जाने लगी तो दो लोगों ने उसका हाथ पकड़ लिया तो उसने सामने बैठे यात्रियों को पुकारा मगर, सब करवट बदल सोते रहे उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या करे, वो चारो-पांचो उसे बुरी तरह घेर उसके साथ छेड़खानी कर रहे थे और वो कुछ कर नहीं पा रही थी कि उसके हाँथ बंधे थे और लड़के ज्यादा थे किसी तरह उसने अपने पैरों से उनको गिराया तो वे लडखडा गये और वो भागी लेकिन तभी वे सामने आ गये तो ऐसे में उसे कुछ न सुझा तो बांयी तरफ दरवाज़ा खुला नजर आया और वो उससे बाहर कूद गयी ।

ऐसी कई घटनायें हमारे आस-पास तोज घटित होती जिनके हम मूक प्रत्यक्षदर्शी होते और हमारी संवेदनहीनता का स्तर तो अब इतना उपर जा चुका हैं कि पहले तो केवल दूसरों को नजरंदाज करते थे पर, अब तो अपने भी तड़फ रहे हो तो उतना दर्द नहीं होता मजे से नाश्ते के साथ ऐसे खबरें देख-पढ़ अपनी राय ज़ाहिर करते एक बार भी ये नहीं सोचते कि उस जगह हम भी तो हो सकते थे और हमारी जगह वो पीड़ित पर, हम तो ये मान चुके हैं कि हमारे साथ तो ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता और जो कभी हो ही जाये तो ‘इंसानियत’ की दुहाई देते याने कि ‘मानवीयता’ निभाना केवल अगले का ठेका हमारा तो उससे बस, अपनी जरूरत भर का नाता इसी घटिया स्वार्थी सोच ने इन आतंकियों और मुजरिमों के हौंसले बढ़ा रखे हैं और यदि हम एकजुट हो इनका मुकाबला करें तो ये मुट्ठी भर दहशतगर्दी छिपने की जगह तलाशते नजर आयेंगे... इसलिये भले ही ‘ज्ञानी’ न बनो कोई बात नहीं मगर, ‘आदमी’ जरुर बनो ताकि बच सके ‘आदमियत’... बच सके ‘विश्वास’, ‘परोपकार’, ‘दया’, ‘धर्म’, ‘परहित’, ‘जनसेवा’... जैसी निःस्वार्थ भावनायें भी जो अभी तो विलुप्ति की कग़ार पर खड़ी हमको तक रही हैं...पर, आखिर कब तक... :( :( :( ???                    
------------------------------------------------------------------------------------         
२६ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
●---------------●-------------●

कोई टिप्पणी नहीं: