सोमवार, 28 मार्च 2016

सुर-४५३ : “खबर नहीं अगल-बगल की..... खो गया मोबाइल में आदमी...!!!”


 दोस्तों...

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दादी माँ’ बड़ी देर से हर एक का नाम लेकर पुकार चुकी थी पर, न ही कोई उनको सुन रहा था और न ही उनकी बात का जवाब दे रहा था जबकि वे बिस्तर से उठने में असमर्थ अतः पाने पीने के लिये तड़फ कर रह गयी थी... लेकिन कोई आया नहीं ये तो अब हर रोज का किस्सा हो गया इस घर में तो अगल-बगल बैठे लोग भी एक-दूसरे की नहीं सुनते तो फिर वे तो अलग-थलग एक कमरे में पड़ी... ऐसे में उनके पास अतीत को याद करने के सिवाय कोई चारा न रह जाता---

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वो भी क्या दिन थे...
जब...
न टी. वी.
न कंप्यूटर
न मोबइल
न इंटरनेट
न वीडियो गेम
न ही शोपिंग मॉल
न ही छोटे परिवार
तब...
सबके पास
अपने लिये ही नहीं
अपनों के लिये भी
साथ दूसरों व देश-समाज
हर किसी के लिये वक़्त था
आदमी आदमियत से न दूर था
अब तो खोया रहता
तरह-तरह के गैजेट्स मे
आमंत्रित करता बीमारियां
घुट के मरता एकाकी
फिर भी न समझता
कि सुविधाएं
मानव के लिये बनी हैं
न कि मानव उनके लिये
जो उनकी खातिर
अपने आप से ही नहीं
हर किसी से दूर होता जा रहा
"सोशल मीडिया' से संबंध निभा
खुद को सामजिक मान रहा
जबकि अगल-बगल ही
बसने वालों को न पहचान रहा
धीरे-धीरे आदमी से
पुनः आदिम बनता जा रहा ।।
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अंत में वे हाथ उठाकर भगवान् से यही दुआ करती कि---”हे प्रभु, प्रकृति रोज अपने तरीके से जता रही फिर भी मशीन बनते जा रहे आदमी को अहसास नहीं हो रहा... ऐसे में अब तू कोई ऐसा चमत्कार कर कि आदिम बनता जा रहा आदमी अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सके... ताकि करीब आती जा रही कयामत को वक्त से पहले आने से रोका जा सके” :) :) :) !!!  
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२८ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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