सोमवार, 14 मार्च 2016

सुर-४३९ : "संभलो और संभालो... सृष्टि को बचा लो...!!!"

दोस्तों...

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काट दिये वृक्ष सभी
उजाड़ दिये वन-जंगल सभी
मार दिये पशु-पक्षी सभी
छीन जानवरों के आश्रय स्थल
बसा लिये अपने घर
देख हमारा ये अत्याचार
जब प्रकृति लेती प्रतिकार तो
फिर किस मुंह से
दोष देते उपरवाले को
करते शिकायत
उस रब के दरबार में
बजाय इसके क्यों नहीं संभलते
कुदरत को दिर से संवारते
साथ उसके अपना आप भी बचाते
कि बिना उसके हमारा
अपना जीवन भी तो संभव नहीं
फिर न जाने किस बेख्याली में जीते 
जब सर पर पड़ती तो फिर तिलमिला जाते
अब भी समय कि समझे उसके इन संकेतों को
कि क्या कहना चाहती प्रकृति हमसे ???
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सच, आये दिन जिस तरह से पल-पल मौसम गिरगिट से भी ज्यादा तेजी से परिवर्तित हो रहा वो अब केवल चिंता का विषय नहीं रह गया बल्कि अब तो उसके समाधान हेतु उचित कदम उठाने का समय आ खड़ा हुआ हैं क्योंकि जिस तरह से प्रकृति का अनवरत अनंत दोहन किया गया उससे प्राकृतिक संतुलन बुरी तरह गडबडा गया हैं जिसका परिणाम कुछ इस तरह ऋतुओं के बदले हुये मिजाज के रूप में हमारे सामने आ रहा हैं जिसे हम नजरअंदाज कर इसलिये आगे ही आगे बढ़ते जा रहे क्योंकि बात अभी हमारे सर तक नहीं आई हम अपने-अपने घरों में न सिर्फ सुरक्षित हैं बल्कि इस बेमौसम होने वाली बारिश के दुष्प्रभावों से बचने हेतु हमारे पास पर्याप्त साधन भी हैं और कहीं हमारी ये सोच भी काम करती कि ये सब मैंने थोड़े न किया हैं जो मेरी वजह से ये आफत आ रही हैं माना कि ये सच हैं कि कुदरत को इस तरह से हमने अकेले ने खोखला नहीं बनाया लेकिन कहीं न कहीं भले ही एक प्रतिशत ही हो या उससे भी कम मगर, हम भी तो इसके जिम्मेदार हैं जो अपनी सुख-सुविधा की खातिर उसी प्रकृति पर निर्भर करते पर, केवल उसका उपभोग करते उसे बढ़ाने या उसके सरंक्षण का कोई भी प्रयास हमारे द्वारा नहीं किया जाता क्योंकि हम सोचते कि ये हमारा काम थोड़े न हम तो वास्तु का दाम चुकाकर अपने अपराध बोध से मुक्त हो जाते पर, ये भी तो एक कटू सत्य कि चाहे इसका जवाबदार कोई भी हो भुगतना तो सबको पड़ेगा जिस तरह किसी अन्य व्यक्ति के लगाये पेड़ के फल हम सब खाते उसी तरह किसी व्यक्ति के काटे गये पेड़ों का हिसाब भी तो हमें ही देना पड़ेगा क्या नहीं ???

जरा एक बार विचार कर देखे तो स्वतः ही अपनी गलती का अहसास हो जायेगा कि जो भी अनाज या फल या सब्जी हम खाते वो हमने नहीं उगाई फिर भी हम उसका उपभोग कर रहे क्योंकि उसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते तो जो उनको उपजता उसे दाम चुकाकर अपनी जरूरत भर या उससे ज्यादा उसको खरीद समझते कि हमने तो अपना कर्तव्य पूर्ण कर दिया पर, कभी भी ये नहीं सोचते कि वो किसान जो इसे उगाते वो किस तरह से दिन-रात, धूप-छाँव, आंधी-तूफ़ान, सर्दी-गर्मी की परवाह किये बिना इसकी देखरेख करते हम तो अपनी साधारण सी वस्तु भी ताले-चाबी में रखकर ही निश्चिंत सो पाते और दूसरी तरफ वो किसान वर्ग अपनी अनमोल धन-दौलत को यूँ ही खुलेआम छोड़कर किस तरह अपना पल-पल गुजारता ये समझ नहीं सकते जिसके लिये तो वही उसका सब कुछ उस पर ही उसकी व उसके परिवार की जिंदगी की डोर थमी हुई ऐसे में यदि कभी बारिश ही न हो या कभी असमय हो जाये या कोई भी प्राकृतिक आपद आ जाये तो वो किस तरह से उसका सामना कर अपने व अपने परिवार की जान बचाता इसकी तो हमें खबर तक न होती कि अमूमन तो उसे इस आपद का खुद ही सामना करना पड़ता क्योंकि कोई भी उसके इस नुकसान में सहभागी न बनता न ही उसका गम बंटाता या उसके हिस्से की मुसीबत को साँझा करता

गोया कि ये जो कुछ हुआ इसमें हमारा क्या कुसूर जो हम इस पर माथापच्ची करे पर, वो तो हम सबकी खातिर ही अपने कृषक के कर्म में लगे रहते जिसमें उनका स्वार्थ उतना बड़ा नहीं जितना हम सबका जीवन टिका हुआ कि वो तो इस काम को छोड़कर कुछ दूसरा काम भी पकड़ सकते पर, हम तो वो काम नहीं कर सकते ऐसे में यही लाज़िमी कि हम सहभागिता और सहजीवन के प्रकृति के सिद्धांत पर अमल करते हुये क़ुदरत के साथ कदमताल करते हुए चले जिससे सबको एक-दूसरे से सहयोग ही नहीं बल्कि साँसे भी मिले वो वक़्त निकल गया जब इस तरह से मौसम के तेवर बदलने पर हम हंसी-मजाक कर कन्नी काट लेते थे पर, अब तो जबकि पानी सर से उपर जा चुका तो हमें इसके उपायों पर अमल करना शुरू कर वृक्षारोपण के साथ-साथ जीव-जंतुओं के सरंक्षण और किसानों के हित में भी प्रयास करना चाहिये जो केवल किसी एक के करने से संभव नहीं अतः सभी को सामूहिक रूप से अपने-अपने स्तर पर इस कार्ययोजना को अंजाम देना पड़ेगा तभी शायद, उपरवाला खुश हो अन्यथा जो कुछ भी अप्राकृतिक नजारे देखने मिल रहे उनमें बढ़ोतरी ही होती जायेगी क्योंकि उसके संकेतों को हम देखकर भी अनदेखा करेंगे तो आखिरकार फिर उसको ही कोई निर्णय लेना पड़ेगा जो हम सबके लिये बोले तो संपूर्ण मानवजाति के लिये घातक साबित होगा... तो मौसम की इन विषमता पर ठोस कार्यवाही जरूरी हैं... वरना, चिड़िया चुग गयी खेत तो फिर न तो नया खेत और न ही नई फसल लगा सकेंगे... तो कुछ समझे या यूँ ही विनाश होते हुये देखना हैं... :( :( :( !!!         
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१४ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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