बुधवार, 16 मार्च 2016

सुर-४४१ : "देह की प्याली में... रूह की हाला… !!!"

 दोस्तों...

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‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोय’... प्रेम की उच्चतम अवस्था जब प्रेमी अपने प्रियतम को ही अपना सर्वस्व मान लेता फिर एक दिन कस्तूरी मन की तलाश पूरी हो जाती और उस दिन अपने ही भीतर छिपे आत्मिक साथी को पाकर वो पूर्ण हो जाता फिर कोई कामना न शेष रहती...

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डूबाते...
चाय की प्याली में
बार-बार टी-बैग
जब तक कि मनचाहा
रंग और स्वाद नहीं आ जाता
काश, उसी तरह
आत्मा को देह में रमाते उतना
कि न कुछ कम न ज्यादा
मोह का रंग चढ़ता
बस, जीने की जरूरत भर जितना
और छोड़कर प्याला
भूल जाते जैसे
देह से छूट जाते वैसे
कि मायने रखती
वो हाला जो मिलती
ज़िंदगी के मायने समझने
न कि उसके नशे में धुत होकर
आप अपना गंवाने के लिये
मगर, हम तो प्याले के आकर्षण में
खो जाते इस तरह कि
भीतर की जगह बाहर डुबकी लगाते
तभी तो आत्मिक मोती की जगह
फ़िज़ूल पत्थर हाथ आते ।
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हमारे अंतर में ही तो बसा हमारा वो ईश्वर जिसे हम न जाने कहाँ-कहाँ ढूंढते मगर, अपने दैहिक घर की तलाशी लेना भूल जाते जो एक प्याला जिसमें भरी हुई आत्म ज्ञान रूपी हाला जिसे यदि हमने चख लिया तो फिर समझो अमरत्व पा लिया... कि यही तो प्रेम का वो सागर जिसमें डूबकर ही इंसान पार होता लेकिन अमूमन उसमें प्रवेश करते ही एक छटपटाहट महसूस होती जिसके कारण घबराकर साधना में लीन आत्मा के दर्शन को आतुर नयन खुल जाते पर, जितना हम अभ्यास करते उतना ही उस मद में खोते जाते और फिर एक दिन उस आत्ममणि को पाकर उस सूक्ष्म अदृश्य जगत में जहाँ से हम जन्मे थे पहुँच जाते और इस तरह हमारी ये जन्मों-जन्मों की यात्रा समाप्त हो जाती... :) :) :) !!!  
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१६ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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