मंगलवार, 8 मार्च 2016

सुर-४३३ : "अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस... !!!"


दोस्तों...

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जन्मी कहीं
पली-बढ़ी और फिर
जब सीख गयी वहां जीना तो
डोली में बिठाकर
भेज दी गयी और कहीं
जगह कोई सी भी हो लेकिन
उसे यही कहा गया कि
न तो ये न ही वो
कोई भी नहीं ठिकाना उसका
वो तो बस, मुसाफ़िर
जिसे चार दिन की जिंदगी में
दो दिन मायके तो दो दिन ससुराल रह
एक दिन सीता की तरह वापस
धरती में समा जाना हैं
कि जिसे अपने हाथों सजाया-संवारा
उस पर न कोई अधिकार उसका
वो तो महज़ फर्ज़ उसका
जिसे हर हाल निभाना ही हैं उसको
दरम्यां इसके दिल पर जो गुजरी
इसकी परवाह किसको ???
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अजीब विडंबना कि हर एक लड़की को अपने जीवन में कभी न कभी तो ये सुनना ही पड़ता कि जहाँ भी वो रह रही या जिस आशियाने को उसने अपने हाथों से सजाया-संवारा वो उसका नहीं चाहे फिर वो घर हो जहाँ उसने जनम लिया बचपन बिताया या फिर वो ससुराल जहाँ अजनबियों के बीच आकर उनको अपना मानकर उनके घर की रंगत बदल अपना जीवन होम कर दिया लेकिन जब भी कभी बातों का रुख बदला तो वो जाकर सीधे उसकी दुखती रग को जोर से दबा गयी कि सामने वाले ने तो बड़ी आसानी से ये जुमला कि ‘ये कोई तुम्हारा अपना घर नहीं’ किसी पत्थर की तरह उसके माथे पर उछाल दिया बिना ये सोचे कि वो कितने गहरे तक लगा उसने उसे कितना दर्द दिया क्योंकि कहने वाले ने तो आख़िर कह ही दिया जो उसके दिल में आया उसे क्या परवाह कि ये अलफ़ाज़ उसे कितनी तकलीफ या असहनीय पीड़ा देंगे एक ऐसा जख्म जो कभी भरेगा नहीं फिर भले ही आप उसे घर की मालकिन कहे या महारानी क्योंकि हकीकत वो जान चुकी कि चाहे वो अपनी सारी जिंदगी अपना सारा जीवन ही समर्पित कर दे लेकिन जब भी ऐसा कोई पल आयेगा तो ये दाग तो उसके ही सीने में आयेगा उसके बावजूद भी पूरी शिद्दत व लगन से चारदीवारी से मकान को घर बनाने में वो अंतिम सांस तक जुटी रहती कि उसने भी इस कटू सच्चाई को स्वीकार कर लिया कि कोई भी उसका अंतिम आश्रय नहीं सिवाय भगवान के घर के जहाँ कोई भी उसे इस तरह शर्मिंदा न करेगा

औरत को भले ही पेड या दरख्त की संज्ञा दी गयी हो लेकिन हकीकत इससे अलग कि वो तो ‘धान’ के पौधों की तरह होती जिसकी जड़ें नहीं होती अतः किसी भी जमीन से उखाड़ कर किसी भी दूसरी जगह रोपा दो वो आसानी से अपने पैर जमा लेती क्योंकि उसके भीतर अदम्य इच्छाशक्ति के अलावा जीवन के प्रति गहरा लगाव भी होता क्योंकि वो तो स्वयं जीवनदायिनी तो फिर किस तरह जीवन से हार मान ले तो आजीवन हर तरह के हालात, हर तरह की परिस्थिति से जूझकर भी आस नहीं खोती कभी निराश नहीं होती पुरे जोश से अपने परिवार के लिये सुबह से रात तक अथक चकरी की तरह घुमती ही रहती मगर, माथे पर कोई शिकन न होती बल्कि अगले दिन की तैयारी मन में चलती रहती जिसके पास अपने लिए भले ही वक़्त न हो लेकिन अपनों के लिये सदैव समय होता क्योंकि वो जानती कि केवल अपने लिये जीना सबसे निकृष्टतम श्रेणी की सोच जो किसी जानवर की तो हो सकती लेकिन एक स्त्री की कतई नहीं हो सकती उस पर वो जिसने लोगों को जीवन दिया ऐसे में यदि वही जिंदगी के सामने घुटने टेक दे तो फिर उस पर आश्रित लोगों का क्या होगा वे तो उसकी वजह से जीते-जी ही मर जायेंगे तो अपने टूटते हौंसलों को संभाल पलकों तक आ चुके आंसुओं को अपने ही आंचल से पौंछकर एक बार फिर से दुगुने जोश-उत्साह से घर के काम में जुट जाती और उनकी ही ख्वाहिशें पूरी करने अपने अरमान और अपने सपनों की जगह उनकी आँखों में बसे ख्वाबों को अपनी आँखों में जीने लगती जो एक दिन पुरे भी हो जाते ।

आज के समय में अब थोड़ी सी सोच बदली हैं तो वो लडकी जो उम्र के एक लम्बे अरसे तक किसी नाम को सुनकर बड़ी होती अपनी पहचान बनाती अचानक से एक दिन उसकी वो पहचान खो जाती जब वो किसी दुसरे के नाम के साथ जुड़ जाता और उसके नाम के साथ किसी अन्य का नाम जुड़ जाता तब उसकी वास्तविक पहचान खोने लगती तो ऐसे में आजकल देखने में आता कि किसी भी नारी ने अपनी सोच इस दिशा में बदली तो अब वो अपने नाम के साथ अपने मायके के अलावा अपने ससुराल का भी नाम जोड़ने लगी जिससे उसका नाम कुछ लंबा भले ही हो जाता लेकिन हमें अब इस तरह के किरदार भी नजर आने लगे हैं जो समाज के सकुचित दायरों से बाहर आकर अपनी पहचान बनाने में लगे हैं... इस तरह अब नारी अपनी बात कहना सीख रही हैं और एक दिन वो पुरुष के समकक्ष आ जायेगी तो उसके बढ़ते कदमों के नाम आज का ये सलाम... :) :) :) !!!  
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०८ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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