सोमवार, 1 मई 2017

सुर-१२१ : “एक मजदूर की कलम से...!!!"

साथियों... नमस्कार...


श्रमिक अपने श्रम कणों से इमारतों और अपनी बनाई कलाकृतियों पर लिखता है अपने श्रम की कहानी जिसे पढ़ना आसान नहीं कि हम महज़ उसे बनवाने वाले को याद रखते इतिहास में उसका नाम दर्ज करते लेकिन उसके निर्माण में जिसने खून-पसीना बहाया हाड़-तोड़ मेहनत से उसे बनाया उसका कहीं जिक्र तक नहीं होता...

उसे तो ये भी ज्ञात नहीं कि उसके नाम पर पूरा एक दिन समर्पित किया गया हैं और इल्म हो भी तो क्या फर्क पड़ता हैं उसे तो आज भी परिश्रम कर के अपने पेट की आग को बुझाने की व्यवस्था करनी हैं ये आग ही तो हैं जिसकी वजह से सब कर्म भट्टी में सतत जुटे रहते और दाना-पानी से उसे बुझाते जो पुनः जल उठकर हमें कर्मरत रखती....  

ऐसे में उस श्रमिक के पास नहीं वक़्त कि वो लिखे किस्से-कहानी या कविता-आलेख ये तो कलमकारों का काम जो उसके लिये लिखते उसको सुनते-समझते फिर भी यदि कोई मजदूर यदि कुदाली की जगह कलम उठा ले और लिखना चाहे अपने मन के जज्बात तो शायद, वो कुछ इस तरह के होंगे...

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संघर्षों ने प्यार से मुझको पाला हैं ।
पांव नहीं सीने में मेरे छाला हैं ॥

छाया हो या धूप न परवाह करते हैं ।
जीना पीकर जब अश्कों की हाला हैं ॥

गर्दिश के कांटे न मुझको चुभते हैं ।
हाथ में मेरे भरा दर्द का प्याला हैं ॥

बाजारों के झूठ से बचकर चलते हैं ।
पड़ा सुखों पर मज़बूरी का ताला हैं ॥

साधन कम हो पर न रोते रहते हैं ।
दीवारों पर लगा दुखों का जाला हैं ॥

होंठों पर मुस्कान सजाये रहते हैं ।
जलने वालों का हुआ मुंह काला हैं ॥

फूलों से दामन बचाकर चलते हैं ।
पहनी हुई गले में कंटक माला हैं ॥

मुश्किल के आगे कभी नहीं झुकते हैं ।
नहीं सलीब काँधे पर मेरे भाला हैं ॥

कोई प्रसाधन हो न हमको जंचते हैं ।
छाया मुख पर मेहनत का उजाला हैं ॥ 

हाल कोई हो सर उठाकर जीते हैं ।
जीवन हमको मिला बहुत निराला हैं
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अथक श्रम से निर्मित उसके मनोभावों को समझ पाना या उसे पन्नों पर दर्ज कर पाना संभव नहीं कि उसमें आँसूं ही नहीं रक्त की लालिमा भी शामिल और वो अनकहा दर्द और दबी हुई इच्छायें भी जिन्हें पूरी करने की चाहत में उसने अपना आप मिटा दिया और जब कभी उसकी संतान ने कलम पकड़ी तो उसे अपने अनपढ़ होने का कोई दुःख न रहा... यही तो उसका एकमात्र ख्वाब या ध्येय होता कि भले मैं निर्धन और मजदूर बना लेकिन मेरे बच्चे ऐसे न बने अपने हाथों से मैं उनका भाग्य लिखूं और जुट जाता दिन-रात उस दिन की आस में जो बड़ी मुश्किल से आता और तब वो अपनी हर तकलीफ भूल जाता और यही इस दिन पर उनके लिये शुभकामना कि वे भले मजदूर बने पर, उनके बच्चे न मजबूर बने... :) :) :) !!!
   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०१ मई २०१७

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