गुरुवार, 25 मई 2017

सुर-२०१७-१४५ : ‘वट सावित्री अमावस्या’ और ‘शनि जयंती’ के बहाने... धार्मिक आस्था के मर्म पर चोट करने वालों पर निशाने...!!!



आजकल लोगों को अपने देश और उसकी पुरातन परम्परों के साथ-साथ प्रत्येक रीति-रिवाज़ ही नहीं हर एक उस बात पर ऊँगली उठाने की आदत हो गयी हैं जिससे लोगों की अटूट आस्था जुडी हुई उस पर करेले जैसी आधुनिकता जब उच्च शिक्षा की नीम पर चढ़ जाये तो विषैली कड़वाहट देखते ही बनती हैं कि अधकचरे ज्ञान और नकारात्मकता की आँख से हर चीज़ को देखने की आदत ने उन्हें अच्छी-खासी सदियों पुरानी अपनी वही आधारशिला गलत नजर आ रही जिस पर उनका अपना परिवार ही नहीं देश की समूची व्यवस्था टिकी लेकिन उन्हें तो मात्र अपना ज्ञान बघारना उससे किसी की बरसों पुरानी आस्था आहत हो या फिर वही श्रद्धा जिसके दम पर उनका अस्तित्व कायम उनको कोई सरोकार नहीं कि उनका लक्ष्य उस बुनियाद को ही मिटाना जिस पर वे खड़े हैं मने कि जिस डाली पर बैठे उसे ही काटने में लगे हुए हैं ये अतिबुद्धिमान सुशिक्षित नये-नये बने ज्ञानी लोग ये सब देखकर, पढ़कर ताज्जुब यही होता कि ये सब इतने कि उन्हें ये अहसास ही नहीं कि जिस ‘संस्कृति’ से संपूर्ण विश्व में हमारी अपनी व्यक्तिगत पहचान कायम वे पल-पल उसे ही चोट पहुंचाते रहते इस भ्रम पर कि एक बार जो ये ध्वंस हो गयी फिर तो अपने हिसाब से सब कुछ नवीनतम रचेंगे चाहे ‘संविधान’ हो या फिर ‘वेद’ या हमारी ‘परम्परायें’ वे हर पुरानी चीज़ को नई से बदल देंगे बोले तो उन्हें लग रहा कि ये सब कुछ घर के रेनोवेशन जितना सहज-सरल तो बेचारे रोज ही तोड़ते रहते प्राचीन भारत की दीवारों पे उगी हुई विशाल बरगद के वृक्ष जैसी चारों तरफ अपनी जड़ें फैलाई हुई हमारी उस युगों पुरानी सनातन संस्कृति को जो आने वाली पीढ़ी की धरोहर जिससे हमारी अपनी वैयक्तिक पहचान जिसके अवशेष ही शेष फिर भी अधिकांश लोगों की यही कोशिश कि जो शेष हैं वो भी न रहे सब कुछ नया हो जाये क्योंकि उन्हें अपनी उस पुरानी परम्पराओं से नफ़रत होने लगी जिसकी वजह वही ‘पश्चिमी सभ्यता’ हैं जिसने कभी हमें गुलाम बनाया था सच, में आंकलन करे तो पाते कि यूँ तो उसने हमें १९४७ में शारीरिक गुलामी से मुक्त कर  दिया परंतु मानसिक रूप से कैद कर रखा हैं तभी तो हिमायती लोगों को उनका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा और स्वछंद विचरण पसंद आता जबकि हमारे यहाँ सामाजिक व्यवस्था और रीति-रिवाज़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अपनी महत्ता साबित कर चुके हैं पर, जिन पर विदेशी संस्कृति का काला रंग चढ़ा उन पर फिर किसी भी तरह के तर्क या बात का कोई असर नहीं होता वो तो हर तरह से इसे गलत साबित कर अपना काम निकलाना चाहते ये भूलकर कि बिना जड़ों के हवा में लटका उनका स्वयं का अस्तित्व ‘त्रिशंकु’ की भांति हो जायेगा जिसका अपना कोई नाम या अपनी पहचान बाकी न रहेगी तब वापिस लौटने पर भी हाथों में कुछ न आयेगा कि सब कुछ तोड़कर जाने पर किरचें ही बचेगी जो चुभन के सिवा कुछ भी न दे सकेगी

सबको खुद को बहुत बड़ा प्रगतिवादी विचारक और आधुनिक युग का प्रवर्तक सिद्ध करने का ऐसा चस्का लगा कि उसके लिये उन्होंने माध्यम अपनी उस गौरवशाली वैदिक परंपराओं को चुना जिस पर निशाना लगाने से उन्हें अपना लक्ष्य आसानी से मिल जायेगा कि इनसे करोड़ों की आस्था जुडी और जब उस पर वार किया जायेगा तो वे तिलमिलायेंगे जिससे उन्हें तवज्जो मिलेगी और उनका काम बन जायेगा तो इस फार्मूले पर आजकल सभी तथाकथित बुद्धिजीवी चल रहे हैं और चुन-चुनकर हमारे प्राचीन वेद, पुराण, उपनिषद, धार्मिक ग्रंथों से कथा व पात्रों को सामने लाकर उन पर अपने शब्द बाणों से हमला कर उस स्तर तक जा रहे जिस पर जाकर ‘टारगेट’ का मर्म बिंध जाये तो वो तिलमिलाकर इनसे तर्क-वितर्क करें इसलिये सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग के किस्से निकाल के ला रहे और बड़ी सावधानी के साथ उनमें से केवल नकारात्मकता को ही चुनकर पेश कर रहे ऐसे में जिसको ज्ञान नहीं या जो उस धर्म का नहीं वो मजे ले रहा याने कि भेदभाव का जहर इस तरह से आज भी रगों में भरा जाकर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा रहा हैं ऐसे लोगों को यदि आपने गलती से भी आईना दिख दिया और उसके लिये इनके तरकश में यदि तर्क का कोई तीर नहीं हुआ तो ‘ब्लॉक’ का ‘ब्रम्हास्त्र’ तो हैं जिसे चलाकर ये सामने वाले को नेस्तनाबूद कर देते और समझते कि इन्होने बड़ी जंग जीत ली जबकि अपने कपड़े उतारने से व्यक्ति स्वयं ही नंगा होता न कि उससे सामने वाले को कोई फर्क पड़ता वो तो केवल आपको अहसास दिलाता कि जिस देश में शर्म-लिहाज और दूसरों की भावनाओं का सम्मान किया जाता वहां इस तरह से छीछालेदर करना ठीक नहीं लेकिन नंगा खुदा से बड़ा तो फिर उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा इस तर्ज पर वे राम, कृष्ण, परशुराम, भीष्म पितामह, गौतम बुद्ध, विवेकानंद, सीता, यशोधरा, अहिल्या, सावित्री याने कि जितने भी हमारे आस्था व श्रद्धा के पात्र सबका मजाक बना रहे उन पर घटिया आरोप लगा अपने आपको उनसे बड़ा साबित कर रहे क्योंकि खुद की तो कोई पहचान नहीं तो जिनकी हैं उनसे ही अपना नाम भी बना लिया जाये वही पुराना फंडा दूसरों की लकीर को मिटाकर अपनी बड़ी करना तो सब उसी में लगे पड़े इस वक्त पुरे जोर-शोर के साथ यकीन न हो तो देख ले आजकल सोशल मीडिया पर लिखी जा रही अधिकांश पोस्ट के ‘हॉट टॉपिक्स’ यही सब जिन पर सर्वाधिक लिखा जा रहा और ये लेखन ही इसके पीछे छिपी दुर्भावना को स्पष्ट करने में सक्षम जिसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं कि विकृत मानसिकता से उपजे ये मकड़ीनुमा गंदे विचार इनको अपने जाल में शिकार की तरह फंसा चुके जिनसे निकलना इनके बस की बात नहीं अतः ये पल-पल उसके द्वारा लीले जा रहे नासमझी की इससे बड़ी इन्तेहाँ और क्या होगी कि व्यक्ति अपनी ही कोख को गाली दे और अपने हाथों से अपने ही पवित्र इतिहास पर कालिख मले
                                
इन लिखने वालों में से किसी में इतना सामर्थ्य और नैतिकता का बल नहीं और न ही त्याग, समर्पण, सेवा और क्षमा का भाव जिनसे हमारा अतीत समृद्धशाली और न ही अपने परिजनों या अपने-से जुड़े रिश्तों की मर्यादा व गरिमा का अहसास जिसके लिये उन लोगों ने अपना आप होम कर दिया और वैसे भी हर काल और युग के नियम व प्रथायें सर्वथा भिन्न तो एक की दूसरे से तुलना ही बेमानी हैं कि समय और परिस्थिति के अनुसार उस कालखंड की अपनी मान्यतायें निर्धारित की गयी जिसके अनुसार उस समय के लोगों ने अपना व्यवहार सुनिश्चित किया और युग परिवर्तन के साथ ही पुरानी परिपाटी बदल गयी जिसका स्थान कुछ नूतन चरित्र और नवीन नियमावली ने ले लिया और इस तरह से प्रत्येक काल विशेष के अपने ही महान व्यक्तित्व हुये जिन्होंने उसी तरह से अपना किरदार निभाया जैसा कि उस काल के अनुरूप होना था बाकी अपवाद स्वरूप कुछ बातें हमेशा होती हैं लेकिन उनका वास्तविक विश्लेषण केवल वही कर सकता जिसे उस अवधि के इतिहास का पूर्ण ज्ञान न कि कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपनी बुद्धि से उसके अर्थ निकाल लोगों पर थोपने की कोशिश करें जैसी कि आजकल इन सोशल मीडिया के नये-नये लेखक बने अल्पज्ञ लोगों द्वारा की जा रही हैं । ‘सतयुग’ में प्रचलित धारणाओं को इंगित कर हम उस समय में हुये अवतारों पर छींटाकशी नहीं कर सकते और न ही ‘त्रेतायुग’ के पौराणिक चरित्रों को हम ‘द्वापर’ में अपनाये जाने वाले संविधान या उनकी जीवन शैली के आधार पर आंक सकते उन युगों के कथानकों में जो भी वर्णित वो उस कालखंड के अनुरूप हैं जिसे हम आज के आधार पर देख कमतर जताने की कोशिश करते इससे हम बड़े सभ्य या शिक्षित नहीं बन जाते बल्कि उस युग पर अपना अल्प ज्ञान जताते और यदि हम ऐसा कोई शोध प्रस्तुत करना ही चाहते तो विस्तृत अध्ययन और पूर्ण प्रमाण के साथ उसे लोगों के समक्ष रखे न कि केवल उस विवादित अंश को ही प्रस्तुत कर अपने आपको सबके मध्य बहुत बड़ा वाला छिद्रान्वेषी घोषित करे जिसमें हमें अज्ञानी व विधर्मी लोगों के कमेंट्स व लाइक्स तो अवश्य मिल जायेंगे लेकिन सच्चाई से हम अनभिज्ञ ही रह जायेंगे । ‘राम’ और ‘कृष्ण’ के चरित्र पर हल्की बातें लिखना तंज कसना कोई कठिन काम नहीं और न ही ये प्रतिबंधित क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षा कवच हमारे साथ परंतु कभी सोचकर देखना कि किस तरह से उन्होंने विपरीत परिस्थियों में भी मर्यादा का पालन किया तब जाकर वे पूज्य बने चूँकि आप में वो सामर्थ्य नहीं कि उनके चरणों की रज भी बन सको तो आपने उनके साधारण से विराट बने स्वरुप को घटाने का काम चुन लिया और लगे सूरज पर थूकने जबकि वो आप पर ही आकर गिर रही पर आप तो बुराई में ऐसे मगन कि उसे देख ही नहीं पा रहे तो लगे रहे अपने ही वस्त्र उतारने में पर, ध्यान रखना कि नंगापन आपका ही नजर आयेगा किसी की कुछ न बिगड़ेगा आपकी ही बदनामी होगी जो हो भी रही ।

आज भारतीय संस्कृति के दो प्राचीन पर्व ‘वट सावित्री अमावस्या’ और ‘शनि जयंती’ के एक साथ होने के अद्भुत संयोग के शुभ अवसर पर यही कहना चाहती हूँ... आज भी चंद लोगों को इस त्यौहार के पावन मौके पर भी अपने ही उपर ऊँगली उठाते देखा तो इसके बहाने से ही जो भी मन में आया वही लिख दिया... सबको ‘वट सावित्री’ और ‘शनि जयंती’ की अशेष शुभकामनायें... :) :) :) !!!        

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ मई २०१७

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