बुधवार, 10 मई 2017

सुर-२०१७-१३० : खुद से जिसने जीत लिया अंतरयुद्ध... उसी क्षण वो बन गया ‘गौतम बुद्ध’....!!!

साथियों... नमस्कार...


एक युद्ध अनवरत चलता रहता अपने आप से जो हमारी सोचने-समझने की शक्ति को क्षीण कर हमारे जीवन में आगे बढ़ने के समस्त मार्ग अवरुद्ध कर देता जिसकी वजह से हम वो नहीं बन पाते या वो नहीं कर पाते जो वास्तव में करना चाहते और इस तरह की दुविधा हर एक के मन में कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होती जिसके कारण अंतर में चिंताओं के जाले से बन जाते और व्यक्ति की आत्मा उसमें उलझकर तड़फती रहती जब तक कि वो उस जाल को काटकर खुद को उससे मुक्त नहीं कर लेती लेकिन मुक्ति का वरदान हर किसी को नहीं मिलता बाकी तो आजीवन दुनियावी मकड़जाल में कीड़े-मकोड़े की भांति फंसकर अपना जीवन गुजार देते क्योंकि जिस द्वन्द में वे अटक जाते उसका समाधान कर पाना उनके वश में नहीं होता कभी-कभी तो इस अंतर्द्वंद की वजह अपने रक्त-संबंधी ही होते जो पैर की बेड़ियाँ बनकर राह रोक लेते तो उनसे बिछड़ने की कल्पना मात्र से ही व्यक्ति सिहर जाता और कितने भी कष्ट या दारुण दुःख सहने पड़े वो उसी अजाब में रहना चाहता लेकिन जो इन परिस्थितियों से गुजरने पर भी अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु या अपनों को त्यागने का साहस कर पाते वे ही ‘बुद्ध’ बनते कि इस दुनिया में सबसे कठिन हैं अपने आप से युद्ध कर विजेता बनाना और इस लड़ाई में केवल वीरों की नहीं बल्कि उन समर्थ जितेंद्रिय आत्म नियंत्रक संयमी की जीत होती हैं जो बेशकीमती ख़जाने, राज-पाठ के अलावा अपने संगी-साथी का भी त्याग करना पड़े तो बिना हिचकिचाये त्वरित निर्णय लेते हैं

राजकुमार सिद्दार्थ के सामने भी ऐसे निर्णायक पल आये जब उन्हें अपने प्रिय परिजनों, राजसुख, वैभव-विलास, राज-पाट, महल, दास-दासियों को छोड़कर एकांत निर्जन में जाकर अपने भीतर छिपे उस रहस्य को प्राप्त करना था जिसके लिये उनकी अंतरात्मा सदैव बेकल रहती थी और तमाम सुख-सुविधाओं के बीच भी उन्हें नींद न आती थी जबकि राजकुमारी यशोधरा से उनका विवाह होकर पुत्र-रत्न की प्राप्ति भी हो गयी थी लेकिन उनका तो जन्म ही आत्मा-परमात्मा के भेद को समझकर परमपिता से नाता जोड़कर भूले-भटकों को राह दिखाने के लिये ही हुआ था तो पिता के द्वारा हर तरह की सावधानी बरतने के बावज़ूद भी उन्होंने उस सत्य को जान ही लिया जिसको जानने के बाद फिर कोई भी आकर्षण उन्हें हीरे-माणिक से बने उस स्वर्गिक आनंद युक्त महल में नहीं रोक सका और एक काली अँधेरी रात में उन्होंने सभी सुखों को तिनके की तरह ठुकराकर उस पथ पर कदम बढ़ा दिये जो न जाने कब से उनकी राह देख रहे थे इस तरह फूलों पर चलने वाले नाज़ुक कदम कांटो भरे रास्ते पर चल पड़े जहाँ उनके सामने ऐसा जीवन था जिसके बारे में न तो वे जानते थे और न ही जिनकी परेशानियों से परिचित थे उन्हें तो केवल इतना ही अहसास था कि ये सारे के सारे वैभव-सुख के साधन उनके मन को न तो बहला पाते और न ही बांधकर ही रख पाते हैं तो फिर ऐसे में मन मारकर इनके बीच ही पड़े रहना सिवाय तकलीफ के कुछ भी न देगा तो चुनाव और निर्णय की इस विकट स्थिति में उन्होंने उसका चयन किया जो उनको आत्म संतुष्टि दे न कि जहाँ रहने से उन्हें तमाम ऐश्वर्य तो प्राप्त हो लेकिन भीतर अधूरापन रहे और यही हम सबकी गलती होती कि हम इस तरह से फ़ैसला नहीं ले पाते तो हमारे सपनों और हकीकत के बीच फ़ासला बना ही रहता जबकि उनके इस साहसिक कदम को उठाने जितनी ताकत हमारे भीतर भी होती लेकिन अपनी कमजोरियों के आगे हम आत्म-समर्पण कर देते तो आजीवन ‘बुद्ध’ की जगह ‘बुद्धू’ ही बने रहते हैं

राजकुमार सिद्धार्थ का ‘तथागत’ बनना महज़ कोई कथा नहीं बल्कि नियति का विधान था तो स्वतः ही इस तरह की परिस्थितियां निर्मित हो गयी जिन्होंने उनको रोके जाने की सारी कोशिशों को नाकाम साबित कर दिया तो इस तरह ये होनी थी जो होकर ही रही लेकिन ऐसे में यदि हम ये सोचे ये सब पूर्व निर्धारित इसमें राजकुमार सिद्दार्थ का अपना कोई सामर्थ्य नहीं उन्होंने तो महज वही चरित्र निभाया जो उन्हें प्रदान किया गया था तो इस तरह हम उनके बलिदान को कम आंक रहे क्योंकि भले स्क्रिप्ट उपरवाला लिखकर हमें अपनी भूमिका देता लेकिन उसे उसी तरह सब निभा सके ये संभव नहीं कुछ तो यहाँ आकर जगत की चकाचौंध में खो जाते तो जो करना था उसे भूल मोह-माया में रम जाते याने कि परीक्षा में फेल हो जाते जैसे कि ‘गुतम बुद्ध’ की कहानी में ही हम देखते कि उनके सामने भी ऐसा समय आया जब वे सुख में आकंठ डूबे थे परन्तु शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो वे संभल गये और उस दलदल से निकल सत्य की खोज में निकल पड़े तो अंतर का दीपक जल गया जिसने सभी भ्रम-शंकाओं का निवारण कर उन्हें इंसान से भगवान बन दिया हम सब भी यदि ऐसे जोखिम उठा सके तो साधारण से असाधारण बन सकते यही याद दिलाने हमारी आत्मा को जगाने प्रतिवर्ष ऐसी तिथियाँ आती कि न जाने कब किस घड़ी में हमारी सुप्त चेतना जागृत हो ‘असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतमगमय’ को चरितार्थ कर दे तो इसी शुभकामना के साथ आप सभी को बुद्धा पूर्णिमा की ढेर सारी शुभकामनायें... :) :) :) !!!
   
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१० मई २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: