इस प्रश्न का जवाब अक्सर सब ढूंढते और
पूछते लेकिन मिलता केवल उन्हीं को जो सचमुच इसे जानना चाहते, ऐसे ही मन में उठते शंकाओं के झँझवात से गुजरते
पलों में किसी ने खुद से ही पूछा यही सवाल तो उसे जवाब कुछ यूँ मिला...
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गहन दुःख
घनघोर निराशा
और असहनीय पीड़ा
जब करने लगी
चारों तरफ से वार
तो घबराकर उसने पुकारा
"ईश्वर कहाँ हो तुम ?"
.....
अगले ही पल जैसे
भीतर से आवाज़ आई हो
किस का स्वर गूंजा
एकदम स्पष्ट झकझोरता सा
कि अगर तेरे हृदय में नहीं
तो फिर कहीं नहीं हूँ मैं...
.....
पाकर ये जवाब मानो
भीतर कोई चराग़ जल गया
फूट पड़ी अंतर से
ज्ञान की दिव्य रौशनी
खुल गये देह के द्वार सभी
हुआ ज्यूँ साक्षात्कार
अंदरुनी दैवीय शक्ति से
न रहा शेष कोई प्रश्न
न रहा मन में बाकी कोई भ्रम
छंट गया जो छाया था
जेहन पर, धुंध
एकाएक
दिखने लगा सब कुछ
अब बिल्कुल ही बेदाग़
ज्यूँ आईने में नजर आता हैं
'अक्स' अपना
साफ़ ।।
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हम अपनी ज़िंदगी
में इस कदर ग़ाफ़िल कि खुद से ही मिलने या आत्म -साक्षात्कार की फुर्सत नहीं और इतने
अस्त-व्यस्त कि उसे व्यस्तता का जामा पहनाकर फूले रहते... उस पर अपने ज्ञान का
घमंड इतना कि 'ईश्वर' के
अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाते लेकिन कभी ये ध्यान न आता कि आत्मा के दर्पण को तो
इतना मलिन कर लिया कि अब उसमें कुछ भी नजर न आता ।
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१६ मई २०१७
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