मेरे घर के दरवाजों को तुम्हारी दस्तक का इंतज़ार
हैं
देहरियां तुम्हारे आलते से रँगे नाजुक पांवों को
न जाने कब से छूने को बेकरार हैं
शुभ कलश में रखे हुये अक्षत जमीन पर बिखरने को
तैयार हैं
अब तो 'हाँ' कह
दो मेरी जान कि हम बस, तुम्हारे
ही तलबगार हैं
जाती हुई 'वीथिका' ने
'सूर्यांश' की
बात सुनकर उसे पलटकर देखा और सोचा कि भीतर जो पिघल गया हैं वो उसके हथेली में रख
दे और थाम कर उसका हाथ चल दे उसके साथ जहाँ भी वो ले जाये पर, तभी
जेहन में अपने घर का वो मायूस मंजर तैर गया बीमार माता-पिता और उस पर आश्रित
भाई-भाभी का परिवार तो उसे लगा कि जो फैसला वो इतने सालों में कभी न ले पायी अब भी
न ले पायेगी क्योंकि 'सूर्यांश' में
उसने कभी भी वो ठहराव नहीं देखा जिसकी उसे तलाश थी । बल्कि वो तो उसे हमेशा किसी
आवारा चाँद की तरह लगा जो किसी भी बदली में छिपकर रात गुज़ार लेता हैं तो ऐसे में
उसे जीवन का वो सुख मिल भी गया अगर, जिसकी उसे तलाश थी तो वो
क्षणिक ही होगा कि जिसकी प्यास किसी भी नदी के जल से बुझ सकती हो भला, उससे
एक ही नदिया के किनारे रुकने की उम्मीद महज़ छलावा नहीं तो और क्या हैं?
फिर भी न जाने क्यों उसका मन करता कि वो भी तो
एक बार ही सही अपनी सूखे होंठों को तर करें, प्रेम का वो स्वाद चखे जिसे
केवल सुना हैं उसने आज तक न महसूस किया और न उस अनुभव से गुज़री और फिर सिवा उसके
कोई विकल्प भी तो नहीं इस दौड़ती-भागती स्वार्थी दुनिया में जहां हर कोई केवल दो पल
का साथ चाहता अपने गिनती के चार पल वो एक ही आश्रय में गुज़ारना नहीं चाहता । ऐसे
में जबकि वो ये सच जान चुकी हैं तो क्या उसे ये हक हैं कि जवानी के ढलाव पर, यदि
कोई उसे ये प्रस्ताव दे तो वो उसे ठुकरा दे आखिर, प्यासे ही मर जाना जीवन का
अपमान नहीं क्या वो भी तब जब कुएं ने खुद ही पुकारा हो तो ठिठक कर सोचने लगी वो पर, कदमों
में बंधी संस्कारों की अदृश्य बेड़ियों ने एक बार फिर उसे अपनी तरफ खिंच लिया ।
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ मई २०१७
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