मंगलवार, 30 मई 2017

सुर-२०१७-१५० : निर्भीक, निष्पक्ष पत्रकारों का पर्व... ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ !!!


सन १८२६ में देश के हालात किस तरह के रहे होंगे ये केवल वही समझ सकते जिन्होंने अपने देश का इतिहास अच्छी तरह से पढ़ा हो, ऐसे समय में किसी एक हिंदुस्तानी द्वारा ‘अख़बार’ का प्रकाशन करना कितना जोखिम भरा कार्य हो सकता हैं इसका अंदाजा भी वही लगा सकता जो उस दौर की विसंगतियों से भली-भांति परिचित होगा आज के लोगों को सब कुछ बड़ा सहज लगता कि महज़ ६८ साल की आज़ादी में वे उस वक़्त की विवशता और विपरीत परिस्थितियों को भूल गये जबकि जुबां खोलना या खुलकर अपना मत रखना या वर्तमान सरकार के खिलाफ़ किसी तरह की बात सोचने पर भी सख्त पाबंदी थी लेकिन ऐसे प्रतिकूल हालातों में भी चंद लोग जिन्हें अपनी मातृभूमि और स्वतंत्र विचारधारा की परवाह थी और जो देश के लोगों तक सच्चाई लाना चाहते थे उन्होंने अपनी जाल हथेली पर रखकर भी वो काम किया जो देश व समाज के हित में था क्योंकि वे जानते थे मौत तो आकर ही रहनी हैं बेहतर कि मरने से पहले अपने वतन के प्रति अपना फर्ज़ निभा देश की मिटटी का कर्ज चूका दे फिर मरने का गम न रहेगा । इसी वजह से उन्होंने फिरंगियों की परवाह किये बिना अपने हक़ की लड़ाई लड़ी और वो सब कुछ किया जिससे उनको न सही लेकिन उनके हमवतनों को तो वो मिले जिसके लिये वे अपनी जिंदगी को भी ठुकरा रहे तो ऐसी नेक सोच के साथ उस कालखंड के युगपुरुषों ने अपने स्तर पर अपनी तरह से ऐसे काम किये कि आज भी उनका गुणगान किया जा रहा जिसका मूल्यांकन ए.सी. रूम में आराम से बैठकर नहीं किया जा सकता कि कड़कती धूप का मज़ा ये ठंडी हवा में पलने वाली कोमल कलियाँ क्या जाने जो छाँव में भी कुम्हला जाती इसके लिये तो सख्तियों के उस तंग माहौल से गुजरना होगा जहाँ सांस लेना भी गुनाह समझा जाता हो फिर भी उन लोगों ने इस तरह की परिस्थितियों में ही जीने की ठानी ताकि सारे जुल्मों-सितम और प्रहार झेलकर भी उनकी भावी पीढियां परतंत्रता की बेड़ियों से आज़ाद हो और उनकी तरह ‘गुलाम’ न कहलाये जिसका परिणाम यदि वे देख ले तो अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करें

खैर... इस तरह की बातों से भी आज के लोगों को उल्टी आती कि वे तो ये मानकर चलते कि जो उनके पूर्वजों ने किया वो उनका फर्ज़ था कोई अहसान नहीं और उन्हें आज़ाद भारत में जन्म मिला ये उनकी खुशकिस्मती जिसके लिये उन्हें उलाहने देना फ़िज़ूल तो इस बात को छोड़कर चलते ३० मई १८२६ में जहाँ ‘पंडित युगुल किशोर’ ने कलकत्ता से ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से हिंदी का प्रथम अख़बार की ५०० प्रतियाँ छापकर ‘हिंदी पत्रकारिता’ का श्री गणेश किया क्योंकि उससे पूर्व अंग्रेजी, बांग्ला, फारसी में तो समाचार-पत्रों का प्रकाशन हो रहा था लेकिन ‘हिंदी’ ही इससे अछूती थी तो इसे निकालने का श्रेय जाता हैं ‘पंडित युगुल किशोर जी’ को जिन्होंने इस विचार को मूर्त रूप दिया वो भी उस जगह से जहाँ हिंदी भाषी कम संख्या में थे उस पर अंग्रेजों की सरकार तो यही वजह रही कि हिंदी बोलने-समझने वाली जनता तक इसे डाक से भेजने के खर्च को लंबे समय तक वहन न कर पाने की स्थिति में बहुत जल्द ४ दिसंबर १८२६ को इसे पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया लेकिन फिर भी इसने राह तो दिखा दी कि यदि पर्याप्त धन व्यवस्था हो तो इस तरह से न केवल हिंदी अख़बार निकाल जा सकता हैं बल्कि उसे जारी भी रखा जा सकता हैं तो कालांतर में इससे प्रेरणा लेकर १० मई १८२९ को ‘राजा राम मोहन राय’ ने ‘बंगदूत’ नाम से चार भाषाओँ हिंदी, अंग्रेजी, बंगला, फारसी में समाचार-पत्र निकाला जो कि पूर्व की तरह अधिक समय तक नहीं चला परंतु १९०० का वर्ष क्रांतिकारी रहा जब ‘चिंतामणि घोष बाबू’ ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन किया जिसने हिंदी पत्रकारिता को चरम पर पहुंचा दिया और इस तरह मार्ग में आने वाली सभी तरह की बाधाओं को पार कर्त्र हुये हिंदी पत्रकारिता ने अपनी जगह बनाई और आज़ादी मिलते-मिलते तक जो गति पकड़ी तो फिर रुकने का नाम न लिया अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, क्रांतिवीर, स्वदेश, कल्याण, बुन्देलखण्ड केसरी, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, आदि पत्र-पत्रिकाओं ने अंग्रेज सरकार को हिला दिया जिसके लिये संपादकों को कारावास तक भुगतना पड़ा लेकिन वे बेख़ौफ़ होकर निडरता से अपनी बात रखते रहे जिसके कारण उनको आज भी सम्मान से याद किया जाता हैं

उतने कठिन दौर में तो फिर भी जैसे-तैसे कई अख़बारों का प्रकाशन होता रहा लेकिन आज तकनीकी युग में कागज़ी अख़बार टी.वी., मोबाइल और कंप्यूटर जैसे यंत्रों से मुकाबला नहीं कर पा रहा क्योंकि आजकल लोग अख़बार पढने की जगह मोबाइल या कंप्यूटर पर ही समाचार पढ़ते और देखते तकनीक के साथ कदमताल करते लगभग सभी प्रमुख अख़बारों के ई-पेपर भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उसके बावजूद भी कहीं न कहीं पन्नों पर छपने वाली खबरों से भी लोगों का जो थोड़ा-बहुत नाता बना हुआ वो उम्मीद दिलाता कि ये एकदम से बंद होने वाला नहीं और यदि कागज़ की कमी को देखते हुये ऐसा कभी हुआ भी तो उनके इलेक्ट्रोनिक संस्करणों से उनको जीवन दान मिलता रहेगा फिर भी जो खुशबू अख़बार के पन्नों से आती उसे यंत्रों के स्क्रीन पर महसूस नहीं किया जायेगा इसे तो केवल वही बता पायेगा जिसने उसका स्वाद लिया आज के कंप्यूटर व इंटरनेट से टक्कर लेने वाले अख़बारों को सुचारू रूप से चलाने वाले सभी समाचार-पत्र और उसके प्रकाशक बधाई के पात्र हैं जो अपनी उपस्थिति से महकते अहसास और अपनी अनुपस्थिति से चिड़चिड़ाने वाले भाव को पाठकों के मन में अब भी जीवित रखे हुये हैं जो भले ही कम लेकिन जीवंतता देने काफी हैं

उन सभी निडर, निष्पक्ष, बेबाक पत्रकारों को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ की बहुत-बहुत बधाई जिन्होंने खबर पहुँचाने की खातिर अपनी जान तक गंवाई पर, जमाने को सच की रौशनी दिखाई... और वो जो आज भी हर खतरे को झेलकर हम तक हक़ीकत लाने का प्रयास कर रहे हैं.... :) :) :) !!!
                    
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० मई २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: