सोमवार, 15 मई 2017

सुर-२०१७-१३५ : अब अपना अलग परिवार तो हैं पर, पहले से न लगते त्यौहार क्यों ?


न जाने वो कौन-सा पल था जब संपूर्ण विश्व में सयुंक्त परिवार की पहचान बन चुका अपना देश जो अपने आप में ही एक विशाल परिवार हैं और 'वसुधेव कुटुम्बकम' की अवधारणा पर न केवल विश्वास करता बल्कि अपनी प्रार्थना में भी सारे जगत के कल्याण की कामना करता कब पश्चिम की नकल करते-करते इस कदर स्वार्थी हुआ कि रिश्ते भी उसे बोझ लगने लगे और उसने अपनी पीठ से उन्हें उतार दिया कि उसमें केवल इतनी ही कूवत या सामर्थ्य शेष रह गया कि वो स्वयं का या मात्र अपने परिवार का ही वहन करने का माद्दा रखने लगा तो अपने उन्हीं परिजनों को जिन्होंने उसके भविष्य को संवारने की खातिर अपने वर्तमान ही नहीं आने वाले कल की भी परवाह नहीं की उन्हीं को उस अवस्था में जबकि उन्हें उसके कंधों और हाथों से भी ज्यादा उसके साथ की जरूरत थी एकाकी छोड़ अपना अलग बसेरा बना लिया जहाँ पीछे छूटे अपनों के लिये न तो उसके हृदय और न ही आलय में थोड़ी भी जगह थी क्योंकि उसके 'स्वीट एंड स्माल फॅमिली' के कांसेप्ट में वे समाते ही नहीं थे जबकि अपनी पुरातन भारतीय संस्कृति की अवधारणा में तो पूरी दुनिया ही समाई हुई थी।

कितना विपरीत नजरिया हैं न पूर्व और पश्चिम में रहने वालों का याने कि दिशा विपरीत तो सोच भी बदल जाती और हम जिनसे कभी संपूर्ण विश्व शिक्षा ग्रहण करता था यहां का ज्ञान समेटकर अपने वहां ले जाता और बताता कि किस तरह वहां एक ही परिवार के लोग ही नहीं सब एक साथ मिल-जुलकर रहते और एक-दूसरे के सुख-दुख में साथी बनते तो दो लोगों की फैमिली वाले उस देश को ये बड़ा विचित्र लगता लेकिन अब जब वो यहां के लोगों को उनकी नकल करते देखते तो सोचते कि किस तरह ये लोग भी उनके रंग में रंग पूंछ कटी लोमड़ी से दिख रहे अब तो उनमें और इनमें कोई अंतर ही न रहा कि पहनावे, खान-पान से लेकर चाल-चलन में भी अधिकांश भारतीय उनकी प्रतिकृति बन घूम रहे जबकि उनका कल्चर उनके अपने देश के परिवेश व जलवायु के अनुकूल होता जिसे बिना सोचे-समझे कुछ लोग अपना लेते कि उन्हें वो सुविधाजनक लगता पर, भूल जाते कि हर सुख की कीमत चुकानी पड़ती हैं चाहे वो चुराया हो या अपनाया हो तो हम भी अपने परिजनों, अपनी साँझा खुशयों से विलग होकर उसका भुगतमान कर रहे उस पर हमारी उदासीनता का आलम भी वो कि हमें इसका अहसास भी नहीं और जब तक इसे समझ पाते खुद को अकेला पाते कि हमारी औलाद भी 'रिटर्न गिफ्ट' की तरह तन्हाई हमें सौंपकर जाती जहाँ पुरानी यादों व ग्लानि के साथ हम तन्हा दीवारों से सर टकराते तो जेहन में अपने उन परिजनों का उदास चेहरा नजर आता जिसकी वजह कभी हम थे कि जवानी के जोश और अपनी ज़िंदगी पर एकमात्र अपना अधिकार समझने वाले हम अपनी लाइफ जीने के चक्कर में ऐसे उलझे कि सब उलझनों से दूर अब एक दृष्टा की तरह नई पीढ़ी को भी वही गलती दोहराते देख रहे पर, मजाल जो वो समझाने से समझ जाये आखिर उसकी आँखों पर भी विदेशी ग्लैमर का चश्मा चढ़ा जो तभी उतरेगा जब उसमें गहन अंधकार के सिवा कुछ न नजर आएगा और जिनकी जिद कि आग से खेलकर ही देखना वो भला कब ये बताने पर पीछे हटे कि देखो इसे हाथ न लगना वरना जल जाओगे वो तो उस जलन को महसूस कर के ही देखते तो सब उसी कवायद में लगे इसलिये कोई किसी को नहीं रोकता ।

लेकिन अब दूसरों को रोकते हुए खुद को भी रुकना होगा कि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही उसी अनुपात में यदि हम अपने घर से पृथक होकर अपना अलग घर बनाये तो इस हिसाब से न तो जगह ही मिलेगी और न ही संसाधन क्योंकि हर फैमिली का हर बच्चा यदि खुद का 'सेपरेट होम' बनाये तो आने वाले समय में हर किसी को इसके लिये पर्याप्त जरूरत का सामान न मिलेगा तो अब भी वक़्त कि चेत जाये अन्यथा कुदरत तो अपनी तरह से समझाती ही हैं तब पछताने के सिवा कुछ न शेष रहता तो उसके पूर्व ही हम जाग जाये और फिर से वही भरा-पूरा परिवार बनाये तभी 'विश्व परिवार दिवस' को मायने दे पायेंगे.... वैसे भी हंसना हो या रोना, नाचना या गाना या फिर कोई तीज-त्यौहार बिना सबके साथ उसका आनंद अधूरा-सा लगता हैं... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१५ मई २०१७

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