शनिवार, 13 मई 2017

सुर-२०१७-१३३ : माँ खेल-खेल में सिखाती हमें... नन्हे नामसझ से समझदार बनाती हमें...!!!

साथियों... नमस्कार...


(मातृ दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष...)

हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह महज़ एक सामाजिक बंधन ही नहीं बल्कि परिवार नामक संस्था को व्यवस्थित ढंग से चलाने की एक पवित्र रवायत भी हैं जिसे वैदिक रीति-रिवाज़ के साथ अग्नि को साक्षी मानकर समस्त देवताओं की सूक्ष्म उपस्थिति को महसूस कर पूर्ण किया जाता कि इससे वे दो लोग जो नितांत अपरिचित हैं अपने दायित्वों को समझ सके और इस तरह वे समाज के सामने अपने एक नये जीवन की शुरुआत करें जिसका मुख्य उद्देश्य संतति के माध्यम से अपने परिवार का विस्तार करते हुये आदर्श माता-पिता बन मातृ-पितृ ऋण से मुक्त होना हैं जहाँ संतान के जन्म लेने से पूर्व ही संस्कारों का ऐसा सिलसिला शुरू होता जो उसे गर्भ से ही अपने अस्तित्व का अहसास कराने के साथ-साथ उसके जन्मदाताओं को भी अपने कर्तव्यों का अहसास कराता कि अब उनकी जिम्मेदारियां बढ़ने जा रही हैं जिसके लिये उन्हें अपने आप में परिवर्तन करना होगा क्योंकि एक बच्चे को दुनिया में लाना मात्र ही पति-पत्नि के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हैं बल्कि ये तो एक नये जन्म के साथ उनके भी नूतन अवतार लेने की शुरुआत हैं तो इस कदम के साथ ही वे अपने आपको भी उस नई जिम्मेदारी के अनुकूल ढालने की तैयारी करे कि अब वे महज़ एक-दूसरे के प्रति ही समर्पित न रहकर अपने प्रेम, स्नेह, जिम्मेदारी और सोच का दायरा बढाये जिसमें उन दोनों के अलावा कोई तीसरा भी शामिल होने जा रहा हैं जिसकी हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिये खुद की कई ख्वाहिशों को भी यदि मारना पड़े तो पीछे न हटने का संकल्प लेना होगा कि संतान की पैदाइश के साथ ही बहुत कुछ बदल जाता तो ऐसे में इन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठाने स्वयं को मजबूत और गंभीर बनाना होगा अपने बचपन को अपने बच्चे में जीना होगा

जब कोख़ से किलकारी जन्म लेती तो साथ ही जन्म होता माँ-बाप का भी जहाँ माँ का जुडाव शिशु से अधिक होता कि वो अंश भले पिता का होता लेकिन उसे आश्रय माँ के गर्भ में मिलता जहाँ वो गर्भनाल के जरिये अपनी जननी से जुडकर उसके भीतर पलता और माँ हर पल उसकी मौजूदगी के अहसास को अपने अंतर में महसूसती तो इस तरह उसके पैदा होने से पहले ही उसे अपनी होने वाली संतान से एक आत्मिक जुड़ाव हो जाता जिससे उस अनदेखे के प्रति अपने आप ही प्रेम हो जाता जबकि पिता की भूमिका यहाँ गौण हो जाती कि वो चाहकर भी इन जज्बातों को उस तरह से महसूस नहीं कर सकता शायद, यही कारण कि माँ और बच्चे का रिश्ता सबसे करीबी और सबसे गहरा होता जहाँ माँ बिना बोले ही अपने बच्चे के मन की बात जान लेती क्योंकि जिसे उसने खुद ही बोलना-सोचना सिखाया, सारे अहसासों व रिश्तों से परिचय कराया उसके बोलने से ही पहले क्यों न जान जाये कि उसके अंदर क्या चल रहा भले ही देह से अलग हो गया लेकिन अंश तो उसी का हैं जिसके भीतर भरा हुआ ज्ञान और अहसास भी तो उसी का हैं जो उसके जन्म के बाद से ही उसकी माँ ने उसे देना शुरू कर दिया और हमेशा अपने आस-पास उसे रखते हुये उसे हर छोटी-से-छोटी तो बड़ी-से-बड़ी बात को भी बड़ी आसानी से खेल-खेल में उसके दिमाग में भरती जाती जिसका परिणाम ये होता कि नन्ही उम्र में ही उसका शब्दकोश बनने लगता जिसे वो समयानुसार इस्तेमाल कर अपने परिजनों को अपनी तोतली वाणी से प्रसन्न करता रहता और माँ ये देखकर ममता से आह्लादित हो उसे नित नूतन बातें बताती रहती कि उसकी संतान किसी बात से अनभिज्ञ न रह पाये तो अपने आस-पास के परिवेश से लेकर जहाँ तक जो कुछ भी उसे पता वो सब वो उसे बता देती यहाँ तक कि उसके लिये तो वो खुद बदलते समय के अनुसार खुद को बदल अपनी जानकारियों को भी बढ़ाने का प्रयास करती ताकि कहीं उसकी वजह से उसका बच्चा किसी से पीछे न रह जाये

आज के समय तो माँ की भूमिका और ज्यादा कठिन व मुश्किलों से भरी हो गयी हैं क्योंकि अब तो पिता ही नहीं माँ भी बाहर जाकर कमाती इस तरह दोहरे कामों के बोझ से दिन-भर चक्करघिन्नी की तरह घुमती रहती ऐसे में उसके पास जितना भी समय होता वो उसे अपने बच्चे को देने का प्रयास करती क्योंकि अब बच्चे की जिंदगी भी सहज-सरल नहीं रह गयी प्रतियोगी माहौल में अनेक दबाबों से घिरे होने की वजह से वो भी इस तनाव का हिस्सा बन जाता तो अब वो बचपन के खेल, वो आपस में गुजरने वाला समय कम होने लगा तो ऐसे में माँ ने उसका भी विकल्प ढूंढ लिया और वो गेजेट्स के माध्यम से ही उसे सिखाने लगी लेकिन उसमें वो प्राकृतिक सुरम्य वातावरण और शुद्ध वायु का समावेश तो न होता अतः यही कोशिश हो कि अपने बच्चे को कुदरत के निकट ले जाकर उनसे उसी तरह रिश्ता जोड़े जैसा हमारी माँ ने हमें सिखाया तब वो उसका महत्व भी जानेंगे और उन्हें अपना समझकर उनके सरंक्षण का प्रयास भी करेंगे वैसे भी एक माँ के अतिरिक्त उसकी सन्तान को न तो कोई समझ सकता, न समझा सकता और न ही उसका ख्याल रख सकता तो वो नये जमाने के इस नये माहौल में उसे केवल किताबों या मोबाइल या टी.वी. में ही प्रकृति दर्शन कराकर उसे सच में प्रकृति के निकट ले जाये तो वो केवल उस कुदरत से नहीं आप से भी जुड़ जायेगा कि वहां के साक्षात् अनुभव उसे जज्बातों को मौन में व्यक्त करना सिखायेंगे तब आत्मा का नाल से टूटा सिरा फिर से जुड़ जायेगा... स्नेह का नाता अटूट बन जायेगा... :) :) :) !!!    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१३ मई २०१७

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