मंगलवार, 23 मई 2017

सुर-२०१७-१४३ : जिसने रब से लौ लगाई... महफिल लगे फिर उसको तन्हाई...!!!



‘काटे नहीं कटते है लम्हें जुदाई के’... कि बहुत उदासी महसूस होती हैं जब हम अपनों से दूर होते हैं तब हर पल जेहन में उनका ही ख्याल मंडराता रहता हैं और किसी भी काम में या कहीं भी चले जाओं पर, मन ही नहीं लगता यहाँ तक कि कुछ भी करो उसके ख्याल से मुक्ति नहीं मिलती जो साबित करता कि ‘इश्क़’ और ‘इबादत’ एक समान ही होते कि दोनों में ही सिवाय अपने महबूब, अपने खुदा के किसी का ध्यान नहीं आता फिर भी यदि किसी से आप कहे कि ‘इंसान’ से नहीं ‘भगवान’ से प्रीत की डोर बांध लो तो सबके लिये ये उतना सहज न होगा कि वो तो केवल उसे ही चाह सकते जिसका दीदार हो और जिसे वो महसूस कर सके जो ‘मूरत’ की जगह ‘सूरत’ से अधिक सहज होता तभी तो किसी को देखते ही हमारा अपना दिल झट उसके पाले में जा गिरता इतना बेईमान तो कोई भी नहीं होता कि जिसके पहलू में पले उसे ही छोडकर गैर का हो जाये पर, ‘दिल’ नाम की ये शय कुछ ऐसी ही तासीर रखती जो कहने को तो अपनी होती लेकिन कभी किसी से मिलकर इस तरह से उसकी हो जाती कि शक होने लगता ये अपने ही देह का अंश हैं न फिर किस तरह से ये दूसरे के लिये इस कदर परेशान हो रहा कि जिस शरीर ने इसे अब तक संभाला कमबख्त को उसकी ही जरा-सी भी परवाह नहीं इतनी तकलीफ़ तो दुश्मन भी नहीं देता जितनी हमारा अपना ये अंग हमें देता जो किसी की याद में किसी के प्यार में इस तरह गुम होता कि अपने वजूद को तो भूलता ही साथ अपने उस हिस्से को भी इस तरह बिसरा देता जैसे उससे उसका कोई नाता ही नहीं ‘इश्क़’ की इस इन्तेहाँ से गुजरकर ही कोई एक ‘दीवाना’ बनता जिसका हासिल उस रूप में उसे मिलता या नहीं जिसके लिये उसने अपना सर्वस्व लुटा दिया ये तय नहीं फिर भी जब किसी को ये हो जाता तो फिर वो कुछ न सोचता आख़िर दिल के आगे दिमाग की बिसात ही खत्म जो हो जाती कि दोनों का तालमेल हो तो फिर खरा-खरा इश्क भी मिलावटी हो जाता इसलिये जहाँ दिल का काम होता दिमाग अपना दिमाग नहीं लगता उस वक़्त दिल ही दिमाग बन जाता तब कहीं जाकर वो परवाने की तरह अपना आप जलाकर अपने प्रेम को पाता याने कि ख़ाक होकर ही खुद की पहचान होती और यही वो अहसास होता जहाँ तन्हाई भी महफ़िल नजर आती जबकि मायूसी में तो महफिल में भी वो खुद को तन्हा महसूसता बोले तो इश्क़ में डूबा व्यक्ति हर शय में अपने मेहबूब के दर्शन करता तो फिर भला अकेलापन किस तरह से महसूस हो

इतनी खूबियों के बाद भी ‘इश्क़’ जो हैं न, ‘इबादत’ से थोड़ा-सा कम ही पड़ता क्योंकि ‘इश्क’ में पाने की देखने की ललक उसे स्वार्थ से जोड़ देती जबकि रब से प्रीत होने पर उसे ढूंढने कहीं जाना नहीं पड़ता अपने अंतर में ही उसके दर्शन हो जाते और सुकून का ऐसा प्रसाद मिलता कि हर चाह स्वतः ही समाप्त हो जाती जबकि ‘इश्क़’ में सुकून इस तरह से लुप्त होता जैसे सूरज की किरणों से शबनम खो जाती जिसकी तलाश में हवास भी साथ छोड़ देते और दीवाना दर-बदर की ठोकरें खाता फिरता लेकिन जिसने अपने आपको ईश्वर से जोड़ लिया उसे फिर कोई चाह नहीं होती, हर कामना खत्म हो जाती कि जीवन का अंतिम सत्य ‘मोक्ष’ जिसे पाना हर किसी का लक्ष्य होता वो उसे प्राप्त हो जाता फिर भटकन को तो मिटना ही पड़ेगा इस तरह रब से लौ लगाने वाला कभी किसी भी हालात में खुद को एकाकी नहीं महसूस करता कि एक अदृश्य शक्ति सदैव उसके साथ रहती जो उसे संबल देती तो उसके सहारे वो मुश्किलों के कठिन पल ही नहीं बल्कि आग के दरिया को भी हंसकर पार कर लेता जबकि ‘इश्क़’ में तो कभी-कभी व्यक्ति उस दरिया में ही डूबकर फ़ना हो जाता कि भीतर वो ताकत नहीं होती जो उसे सहारा दे सके क्योंकि जिससे उसने प्रेम किया यदि उसकी तरफ से भी उतनी ही शिद्दत का अहसास न मिले तो अकेले-अकेले आग का दरिया पार करना मुश्किल हो जाता ‘प्रार्थना’ में मगर, ऐसी शक्ति होती कि तन्हा होने पर भी लगता कोई साथ हैं और कितनी भी कठिनाइयाँ आये मन नहीं घबराता तो फिर जबकि सच्चा वाला ‘इश्क़’ न मिले बेहतर कि उस परमपिता की ‘इबादत’ ही की जाये जिसके दम पर दुनिया को भी फ़तेह किया जा सकता और अकेले ही सारे जहाँ से मुकाबला किया जा सकता वैसे भी ये बहुत ही कम होता जब ‘इश्क़’ ही ‘इबादत’ बन जाये... पर, ‘इबादत’ हमेशा ‘इश्क’ बनने का माद्दा रखती कि सुमिरन करने से चाहत का सैलाब उमड़ता जिसमें डूबकर अपावन तन-मन पावन होकर शुद्ध आत्म रूप में परिणित हो जाते... तो ‘इश्क’ हो या ‘इबादत’ खुद को परवाने की तरह जलाकर राख करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो तभी कदम आगे बढ़ाना... वरना, यही कहोगे “न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे”... :) :) :) !!!
                  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ मई २०१७

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