साथियों... नमस्कार...
हमारी आज़ादी के इतने बरसों बाद भी अक्सर ये
कहने-सुनने में आता हैं कि लगता ही नहीं कि हम आज़ाद हो गये या हम तो आज़ाद देश के
गुलाम हैं या बस, शासक बदल गये और भी कई तरह के जुमले लोग आये दिन बोलते रहते ऐसे
में आज के दिन याने कि ३ मई को १९९१ में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र महासभा के 'जन
सूचना विभाग'
ने ये निर्णय लिया कि देश व समाज के हित को देखते हुये प्रेस को मुक्त रखने की आवश्यकता
हैं ताकि वो निर्भय होकर सच्चाई जनता के सामने ला सके लेकिन साथी ही इस बात का भी
ध्यान रखा गया कि वो एकदम निरंकुश भी न बने कि सरकार को ही गरियाने लगे इसलिये उसकी
नकेल अपने हाथ में ही ले रखी तभी तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अख़बारों या
पत्रिकाओं में केवल वही छपता जितना कि पेश करने की इजाजत दी जाती तो उसकी निष्पक्षता
ही नहीं उसकी आज़ादी पर भी संदेह उत्पन्न होता कि जब हम ७० सालों बाद भी खुद को
कहीं न कहीं परतंत्र महसूस करते तब पत्रकारिता को तो स्वतंत्र हुये महज़ २६ साल ही
हुये जो कि किसी भी दृष्टिकोण से परिपक्वता की निशानी न मानी जायेगी कि इस उम्र
में तो खुद का ही होश नहीं होता लेकिन चूँकि बात ‘प्रेस’ की हैं तो वो तो वैसे भी
बंदिशों के बीच अपनी बात रखती कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कई तरह की बाधाएँ
जो हैं साफ़ शब्दों में बोले तो होंठ तो खुले हुये मगर, जुबान सिल दी गयी फिर सिर्फ
लबों को हिलाने मात्र से तो कोई ‘सच’ जान नहीं पायेगा कि इस भाषा में निपुण जो
नहीं कोई और इस जुबान को केवल तब ही खोला जाता जब वो पूरी तरह से वही दोहराने
तैयार होती जैसा कि उसे कहा जाये या लिखकर दिया जाये तो ऐसे पत्रकार खुलेआम
निरंकुश घुमते लेकिन उनसे ‘सच’ की उम्मीद करना हमारे भोलेपन और अज्ञानता की
पराकाष्ठा हैं जिसकी वजह से आज लोग न्यूज़ चैनल्स को कोस रहे कि वहां सब कुछ
प्रायोजित परोसा जा रहा तो ये सोचने पर मजबूर करता कि आखिर, ये आज़ादी किस तरह की
हैं???
भारत में संविधान के अनुच्छेद 19 (1 ए) में
"भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार" का उल्लेख है, लेकिन
उसमें शब्द 'प्रेस' का
ज़िक्र नहीं है, किंतु
उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं इसके अनुसार भारत की
प्रभुसत्ता और अखंडता, राष्ट्र
की सुरक्षा, विदेशों
के साथ मैत्री संबंधों, सार्वजनिक
व्यवस्था, शालीनता
और नैतिकता के संरक्षण, न्यायालय
की अवमानना, बदनामी
या अपराध के लिए उकसाने जैसे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां
लगाई जा सकती हैं जो स्वतः ही प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाता कि उसे
कोल्हू के बैल की तरह एक सीमित दायरे में ही घूमने की इजाज़त उस पर घोड़े की तरह उसकी
आँख पर शिकंजा भी कसा कि वो केवल वही देखे जो उसे दिखाया जा रहा अपनी आँखों को
अतिरिक्त कष्ट देने की जरूरत नहीं और यदि कोशिश की गयी तो फिर अंजाम के जिम्मेदार
वे स्वयं होंगे तो जान ऐसी चीज़ जिसे यूँ ही तो ‘सच’ जैसी अदृश्य शय के लिये लुटाया
नहीं जा सकता फिर भी सलाम के पात्र हैं वे सभी पत्रकार जो हर कष्ट और मुश्किलों का
सामना कर के सात पर्दों या पाताल में दबी हुई सच्चाई को भी सबके सामने लाकर रहते कि
उन्होंने इस पेशे को अपनी बेहतरी या लक्जरी लाइफ जीने के लिये नहीं चुना बल्कि
काँटों से भरे पथ और पत्थर के सिरहाने पर सर रख कंकरीली धरती पर सोकर भी ‘सत्यमेव
जयते’ को चरितार्थ करने का संकल्प लेकर इस क्षेत्र का चुनाव किया और ऐसे में यदि
उन्हें किसी कठिन परिस्थितिवश सितारों के बीच भी अपना मुकाम बनाना पड़े तो मलाल
नहीं होता कि वो आकाश में तारे की तरह चमक कर भी आँखे के अंधे हमपेशा लोगों की राह
रोशन करते कि शायद कभी वे भी अपने दयुत्व को समझ पाये और नामुमकिन को मुमकिन बना
दे...
'अंतरराष्ट्रीय
प्रेस स्वतंत्रता दिवस' प्रेस
की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से
बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का भी
दिन है तो उन सभी के प्रति जयहिंद का घोष करते हुए सभी कर्मरत पत्रकारों को आज के
दिन की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामना कि वे अपना कर्तव्य न भूले और हक़ीकत को हर हाल
में जनता तक लाये जिसमें यदि उसे उसके साथ क जरूरत भी पड़े तो वो उसके हौंसले मजबूत
करने उसके पक्ष में खड़ी दिखाई देगी बस, उसे अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी से करना हैं,
बाकी हिम्मत तो ‘सच’ से मिल ही जाएगी... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०३ मई २०१७
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