शनिवार, 27 मई 2017

सुर-२०१७-१४७ : ‘मन’ असमंजस का झूला... ‘फ़ैसला’ पल-पल इधर-उधर डोला...!!!


अमूमन हम सबको ही कभी न कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता जबकि हम किसी एक निश्चित फैसले पर स्थिर नहीं हो पाते उस वक्त हम खुद को असमंजस के झूले पर पींगे मारता-सा महसूस करते हैं और हमारा ‘निर्णय’ उपर-नीचे होते झूले जैसा पल-पल बदलता रहता कभी तो एकदम से हम ख़ुशी से इतने हल्के हो जाते कि उड़कर आकाश छू लेते और कभी तो भीतर इतना बोझ महसूस करते कि एकदम आसमान से धरती पर आ जाते ऐसे में किसी ठौर भी ठहर नहीं पाते कि जो हम चाहते वो संभव नहीं होता इसलिये मनचाहा निर्णय लेने की आस में इतना समय व्यतीत कर देते लेकिन, कहीं ये अहसास भी होता कि यदि हमने अपने मन की कर ली तो इसकी वजह से कहीं आगे चलकर किसी अप्रिय परिस्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ेगा क्योंकि हम कितने भी सुलझे या सकारात्मक दृष्टिकोण वाले क्यों न हो मगर, जीवन में कभी-न-कभी सबके साथ अनायास ही कुछ ऐसा घटित होता कि मन डांवाडोल हो जाता क्योंकि भले हमारा अपने आप पर कितना भी नियंत्रण हो पर, कुछ बातें या कुछ चीजें ऐसी हो जाती कि संयम की शिला भी अपनी जगह से डिग ही जाती

शायद, इसका कारण हमारी आंतरिक मनोदशा होती जो किसी ऐसे पल की बाट तो जोह रही होती लेकिन, अपने साथ होने वाली घटनाओं की वजह से वो इसे असंभव मान जो भी हुआ उसे ही अपनी किस्मत समझ हालात के साथ समझौता कर लेती परंतु जब हम उसे कमजोर मान लेते तब भावी प्रबल होकर हमारे सामने वो दृश्य उपस्थित कर देता जो हमने स्वप्न में कभी देखा या दिल ही दिल में जिसकी कल्पना की थी ऐसे में अंतर्द्वंद की हालत बिल्कुल झूले में बैठकर पींगें मारती देह की तरह होती जिसका स्वयं पर कोई वश नहीं होता वो तो खुद को झूले के हवाले कर उस अहसास को जीती लेकिन, भीतर कभी घबराहट तो कभी गुदगुदी होती रहती इसी तरह असमंजस की स्थितियों में भी फैसले के पलड़ा कभी ‘हाँ’ तो कभी ‘ना’ की तरफ डोलता रहता और सम पर आ नहीं पाता तो हम स्वयं ही किसी एक तरफ झुक जाते पर, अनिर्णय की स्थिति जस की तस बनी रहती क्योंकि हम जानते कि हमने वही चुना जो हम चाहते थे पर, वास्तव में जो होना चाहिये था दरअसल वो क्या था या क्या हो सकता तो फिर ‘मन’ को झूले में झूलता हुआ पाते और जब समाधान नहीं मिलता तो शांत होकर अपने आपको वर्तमान हालात के हाथों सौंप देते

जिनके लिये जीने का मतलब सिर्फ खुद की ख़ुशी होती उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो हर हाल में अपने मन की ख़ुशी का चयन करते पर, जो सबको साथ लेकर चलते या समाज की परवाह करते वे जरुर इस तरह की परिस्थिति आने पर बहुत परेशान हो जाते क्योंकि वे अपना कोई भी कदम अपने लिये न उठाकर अपने-से जुड़े रिश्तों और अपने आस-पास के परिवेश के अनुसार चलते तो चाहते हुये भी वो करने से डरते जिसके प्रति लालायित होते कि उनकी मनमानी करने से वो नींव दरक सकती जिस पर समूचा घर खड़ा हुआ हैं और यही वो लोग होते जिनके त्याग की वजह से परिवार कायम रहते रिश्ते फलते-फूलते भले उन्हें उनके इस समर्पण का प्रतिदान नहीं मिले पर, वे जानते कि उनके किरदार की कमजोरी नई पीढ़ी को गलत मार्ग दिखा सकती तो वे अपने बढ़े कदमों को मोड़ लेते उनको ये जीवन दर्शन हजम करने या समझने में परेशानी होती जिन्होंने जीवन का अर्थ सिर्फ़ अपने इर्द-गिर्द समेट रखा और जो अपनी किसी ख़ुशी को त्यागने को हरगिज़ तैयार नहीं होते चाहे जग रूठे या रिश्ते-नाते उनको तो बस, जो करना वो करना और जो चाहिये वो वो चाहिये ही और आज ऐसे लोगों की संख्या अधिक तो वो इस तरह की बातों को भावनात्मक बेवकूफी की संज्ञा देते पर, उन्हें नहीं पता कि उनके अस्तित्व को मजबूत बनाने में ऐसे ही बेवकूफों का बलिदान होता जो ‘मैं’ नहीं ‘हम’ पर विश्वास करते... आखिर अकेला ‘मैं’ कब तक टिकेगा ‘हम’ होंगे तो हर अहसास के मायने बदल जायेंगे... :) :) :) !!!      

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ मई २०१७

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