‘भारत’ देश एक अमर पक्षी बोले तो फिनिक्स की तरह
हैं जो अपनी ही राख़ से फिर से जीवित हो जाता हैं ऐसे ही ये भी बार-बार टूटकर
बार-बार बनता हैं और हर बार उसका नव-निर्माण होता हैं जिससे कि पुराने रूप की
विकृतियाँ दूर होकर उसका स्वरुप अधिक निखरकर सामने आता हैं जिसे नया आकार और नई
पहचान दिलाने के लिये बहुत-से सुधारकों को अपना जीवन होम करना पड़ता हैं तब जाकर
उनके सतत प्रयासों के फलस्वरूप उसके दुर्गुणों का नाश होता हैं कुछ ऐसे ही दोषों
से भरा हुआ था कभी हमारा ये मुल्क जिसका उपचार करने बंगभूमि में अवतार लिया ‘राम
मोहन राय’ ने जिसने ये जान लिया कि ‘शिक्षा’ की पारसमणि ही हैं जो इन बुराइयों को
खात्मा कर सकती हैं तो उन्होंने स्वयं को तो शिक्षित किया ही और हर घर की नींव उसे
आधार देने वाली ‘स्त्री’ को भी सक्षम बनाने का बीड़ा उठाया कि वे ये जान गये थे कि
‘नारी’ भारत भूमि के प्रत्येक परिवार की धुरी हैं जिस पर सारे घर का दारोमदार होता
हैं ऐसे में उसी का शोषण होता देखा उनका कोमल मन द्रवित हो गया कि कहीं तो
नन्ही-नन्ही कलियों को खिलने से पहले ही विवाह की वेदी की अग्नि में झुलसाया जा
रहा हैं तो कहीं वैधव्य की अग्नि में धधकती कमसिन बालाओं को अपनी कामनाओं को मार
जीने को मजबूर किया जा रहा हैं इस तरह के दृश्यों ने उनके जेहन को झकझोर कर रख
दिया और वे सोचने लगे कि यदि इस तरह की प्रथाओं का विरोध कर इन्हें समूल नष्ट न
किया गया तो ये पुनः अपनी जड़ें जमा लेंगी तो इस तरह के कानून बनाने का प्रस्ताव
रखा कि ये गलत रीति-रिवाज़ आज ही नहीं कल भी अपना वजूद कायम न रख पाये और उनके सतत
प्रयासों का परिणाम था कि कभी जहाँ इस देश में ऐसी भी रवायतें थी कि एक मासूम
बच्ची के नाजुक कंधों पर पूरे घर का बोझ डाल दिया जाता था जिससे उसका बचपन अपनी
मासूमियत से वंचित होकर एकाएक ही परिपक्वता के अहसास तले दब जाता और वही कमजोर
टहनी यदि फल का बोझ न उठा पाये तो असमय ही टूटकर मौत की आगोश में समा जाती और
कभी-कभी तो उसे अपने उस सहारे के बिना ही जीने को मजबूर होना पड़ता जिसके आश्रय पर
उसे सौंप दिया जाता तो छोटी उम्र में सूनी मांग के साथ भारी इच्छाओं का भार
सहते-सहते वो वक्त से पहले ही बुढा जाती और इस तरह असीम संभावनाओं की प्रतीक
‘स्त्री’ को ये कुप्रथायें लील जाती तो उन्होंने इस तरह की सभी सड़ी-गली परम्पराओं
का न केवल विरोध किया बल्कि उन्हें सदा-सदा के लिये समाप्त भी किया जिसकी वजह से
आज ये केवल इतिहास में ही दर्ज रह गयी इसके अतिरिक्त उन्होंने स्त्रियों को इतना
सशक्त बनाने की ठानी कि आने वाले समय में वे स्वयं ही अपने हक़ की लड़ाई लड़ सके तो
उन्होंने उनको शिक्षित बनाने का भी बीड़ा उठाया और वे ही पहले ऐसे समाज-सुधारक थे
जिन्होंने ये माना कि औरतों को अपने पिता की संपत्ति में भी अधिकार मिलना चाहिये
जिससे कि वे आर्थिक रूप से भी स्वावलंबी होकर अपने निर्णय स्वयं ले सके न कि
रूपये-पैसों के लिये दूसरों पर आश्रित रहे तो इस तरह उन्होंने स्त्रियों की
शारीरिक, मानसिक, आर्थिक स्वतंत्रता की बात सोची और वे पहले इंसान थे जिन्होंने इस
सोच को मूर्त रूप भी दिया और इसके लिये स्वयं ने भी खुद को हर तरह से विकसित किया
जिससे कि वो खुद भी किसी रूढ़िवादिता से बंधे न रहे तो मूर्तिवाद के खिलाफ़ कदम
उठाकर ‘ब्रम्ह समाज’ की स्थापना की जिसने आधुनिक भारत की बुनियाद रखी क्योंकि
मूर्तिपूजा की वजह से उन्होंने वर्ण-व्यवस्था व लोगों को आपस में लड़ते देखा इसलिये
एक ऐसी संकल्पना लोगों के सामने रखी जिसके लिये उन्होंने तर्क दिया कि वेदों में
भी इसका उल्लेख नहीं फिर क्यों मूर्तिपूजा आवश्यक हो जिसकी वजह से उन्हें परिवार
से बेदखल जरुर होना पड़ा लेकिन पश्चिमी देशों ने उनके द्वारा किये वेदांत के
अंग्रेजी अनुवाद को बहुत सराहा और उनको प्रोत्साहन दिया तो उन्होंने सभी धर्मों का
अध्ययन कर ये निष्कर्ष निकाला कि मूर्ति पूजा के बिना भी ईश्वर की सत्ता पर अपना
विश्वास, अपनी आस्था प्रकट की जा सकती हैं केवल उनकी जगह मानव मूर्तियों को उचित
सम्मान देकर... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ मई २०१७
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